दिवाली के ठीक पहले 12 नवम्बर को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये नरेन्द्र मोदी विवेकानन्द की मूर्ति के वर्चुअल अनावरण के मौके पर दिए भाषण में जब कह रहे थे कि “हमे कभी सेन्स ऑफ़ ह्यूमर” (हँसोड़पन और विनोदी स्वभाव) नहीं खोना चाहिए” तब दरअसल वे खुद अपने भाषण के अवसर और उसमें की गयी विवेकानन्द की व्याख्या की हास्यास्पदता के बारे में ही इशारा कर रहे थे।
एक तो यही कम बड़ी त्रासद कॉमेडी नहीं थी कि विवेकानन्द जैसे कमाल की सोच-समझ और उसे उतनी ही निडर बेबाकी से रखने वाले विवेकानन्द की प्रतिमा का अनावरण ठीक उनके विलोम व्यक्तित्व के हाथों हो। मगर बड़े-बड़े देशों में राजनीतिक केमिस्ट्री ऐसे छोटे-छोटे बौनेपन के प्रहसन दिखाती रहती है।
जेएनयू में विवेकानन्द के विश्व दृष्टिकोण के बारे में मोदी बोले कि “वे (विवेकानन्द) दुनिया भर में भारत के भाईचारे की परम्परा और सांस्कृतिक मूल्यों को लेकर घूमे और उन्हें प्रचारित किया।” मोदी सावधान थे। वे इससे ज़रा सा भी आगे नहीं बढ़े।
विवेकानन्द के वैश्विक नजरिये और भारत की परम्परा के सांस्कृतिक मूल्यों की उनकी समझदारी को छूने से भी बचते रहे। उन्हें पता था कि इस पढ़ाकू और कूपमण्डूकताई से नफ़रत करने वाले, नए समाज की स्थापना के प्रति आग्रही और लड़ाकू साधु के जीवन के लिखे-कहे-जीये जिस अंश को भी वे छुएंगे, उसमें उन्हें खुद अपने और अपने कुटुंब के खिलाफ मुट्ठी ताने खड़ा पाएंगे।
मोदी ने विवेकानन्द के बहुप्रचारित शिकागो भाषण को भी नहीं छुआ, जिसमें उन्होंने कहा था कि: “सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है।
उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है। न जाने कितनी सभ्यताएं तबाह हुईं और कितने देश मिटा दिए गए। यदि ये ख़ौफ़नाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज कहीं ज़्यादा बेहतर होता, जितना कि अभी है।

लेकिन उनका वक़्त अब पूरा हो चुका है। मुझे उम्मीद है कि इस सम्मेलन का बिगुल सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा। चाहे वह तलवार से हो या फिर कलम से।”
भारत की परम्परा के बारे में विवेकानन्द की समझ पर बोलने का साहस तो दूर की बात है, मोदी धर्म पर उनकी उस टिप्पणी से भी कतराकर निकल गए, जो शिकागो की सर्वधर्म सभा में बोलते हुए उन्होंने दी थी कि ”जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है।
ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं।” और यह भी कि “मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते, बल्कि हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।”
हिन्दू-मुसलमान के सवाल पर विवेकानन्द “मेरा दिमाग वेदांती है और शरीर इस्लाम है” के आप्तवचन तक ही नहीं रुके थे। उन्होंने भारत में मुसलमान और धर्मांतरण पर लिखे अपने अनेक लेखों-भाषणों में कहा कि “भारत में मुस्लिम शासकों की विजय ने उत्पीड़ित, गरीब मनुष्यों को आजादी का जायका दिया था।
इसीलिए इस देश की आबादी का पांचवां हिस्सा मुसलमान हो गया। यह सब तलवार के जोर से नहीं हुआ। तलवार और विध्वंस के जरिये हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण हुआ, यह सोचना पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है।
वे (गरीब लोग) जमींदारों, पुरोहितों के शिकंजे से आजाद होना चाहते थे। इसलिए बंगाल के किसानों में हिंदुओं से ज्यादा मुसलमान हैं, क्योंकि बंगाल में बहुत ज्यादा जमींदार थे।”
खुद की डिग्रियों की असलियत के मामले में संदिग्ध मोदी और मानव संसाधन मंत्री बड़े निःशंक भाव से संघी कुनबे द्वारा थोपी जा रही शिक्षा नीति की प्रेरणा स्वामी विवेकानन्द से लेने का दावा करते में भूल गए कि खान-पान और जीवन व्यवहार के मामले में खुद स्वामी जी का आग्रह क्या और कैसा था।
कर्मवाद की ठगविद्या, अंधविश्वास की अवैज्ञानिकता के सांड़ को विवेकानन्द ने हमेशा सींगों से पकड़ा। चन्दा मांगने आये गौरक्षा प्रचारकों के झुण्ड से लम्बे वार्तालाप में गौरक्षकों के यह कहने कि “हम लोग ऐसे अकाल-वकाल के काम में नहीं करते, हमारा यह मंडल गोमाता का रक्षण करने के उद्देश्य से स्थापित हुआ है” के बाद उन्होंने कहा था कि “आप मुझे कर्मवाद बता रहे हैं?
तो सुनिए, मरते हुए आदमी को मुट्ठी भर अनाज देने के बजाय पशु-पक्षियों के प्राण बचाने के लिए बोरों अन्न बांटने के लिए जो आगे आते हैं, उनके बारे में मुझे जरा भी सहानुभूति नहीं है।
आदमी अपने कर्म से मरता है, ऐसा कह कर यदि हाथ खड़े कर दिए जायें, तो दुनियां में प्रयत्न का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा और फिर गायों को बचाने के लिए आपके इन प्रयत्नों का क्या मतलब है?
अपने पूर्वजन्म के कुकर्मो के कारण ही उन्हें मनुष्य के बजाय गाय का जन्म प्राप्त हुआ है। अपने कर्माें के फल के कारण ही वे कसाईयों के हाथ में पड़ती हैं और काटी जाती हैं। उनके लिए मेहनत कर काम करने का क्या मतलब है?”
मोदी और उनके कुनबे के साथ त्रासदी यह है कि उनके पास भारत की समृद्ध सकारात्मक विरासत का एक मिलीग्राम भी नहीं है। न कोई दार्शनिक है, न कोई विचारक, यहां तक कि कोई ढंग का भगवाधारी साधु-संत भी नहीं है।
इसीलिए उन्हें आसारामों, राम रहीमों, चिन्मयानन्दों, रामदेवों सरीखों से काम चलाना पड़ता है। सरदार पटेल, सुभाष बाबू, लालबहादुर शास्त्री, यहां तक कि प्रणब मुखर्जी को हड़पने तक का जतन करना पड़ता है। यह बात अलग है, वे भी सिर्फ तस्वीर के रूप में ही काम आ पाते हैं।
विवेकानन्द को हड़पने और अपने कुनबे में शामिल करने के लिए वे भले एड़ी चोटी का जोर लगा लें उनके पल्ले स्वामी जी के साफे की चिन्दी भी नहीं आने वाली क्योंकि फकत 39 वर्ष की अल्पायु में चले गए स्वामी विवेकानन्द एलानिया समाजवादी थे। एक शोषण विहीन व्यवस्था की कायमी के पक्षधर थे।

अमरीका की दूसरी यात्रा के बाद उन्होंने कहा था कि : “अमरीका से बड़ा नर्क दुनिया में कही नहीं है।” उन्होंने खुद को अपने आँखों-देखे तजुर्बों के आधार पर “समाजवाद ही मानवता को उसकी पीड़ा और दुखों से मुक्ति दिला सकता है” की धारणा तक ही नहीं लाया था, बल्कि यह भी बताया था कि सबसे पहले मजदूरों की अगुआई में (वर्णाश्रम के रूपक में उन्होंने इसे शूद्रों का राज कहा था) समाजवादी राज रूस में स्थापित होगा, उसके बाद चीन में।
वे भारत की मुक्ति का मार्ग भी समाजवाद को ही मानते थे। उनके भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त तो 1920 में भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों के शुरुआती समूह के हिस्से और लेनिन से मुलाक़ात करने वालों में से एक थे।
विडम्बना सिर्फ इतनी भर नहीं थी कि ऐसे विवेकानन्द की ऊंची मूर्ति का मोदी अनावरण कर रहे थे। विडम्बना यह भी थी कि वे यह मखौल विवेकानन्द के सपनों के भारत का निर्माण करने वालों की परवरिश करने वाली उस जेएनयू में कर रहे थे, जिसे मिटा देने के लिए उनकी सरकार और उसकी गुंडावाहिनी सारे बघनखे खोल कर भिड़ी हुयी है।
12 नवम्बर को जेएनयू में असल विवेकानन्द ठीक इस मखौल के दौरान फीस की कमी और शैक्षणिक माहौल की बहाली के नारे लगा रहे जेएनयू के छात्र-छात्राओं की तनी हुए मुट्ठी में थे। सांड़ को सींग से पकड़ने का साहस दिखाते हुए और ठीक यही बात है, जिससे हिटलर और मुसोलिनी के स्कूल से निकले कुपढ़ो को डर लगता है।
लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।