मी लॉर्ड सवर्ण आरक्षण पर चुप्पी; ओबीसी, SC, ST आरक्षण पर पेट में मरोड़ आखिर क्यों?


BY- ए. के. चौधरी


हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्र प्रदेश के राज्य के राज्यपाल के जनवरी 2000 के आदेश को असंवैधानिक ठहराया। जिसमें अनुसूचित क्षेत्रों में स्कूल शिक्षक के पदों के लिए अनुसूचित जनजाति (एसटी) के उम्मीदवारों को 100 प्रतिशत आरक्षण की पेशकश की गई थी।

न्यायालय ने यह भी जोर देकर कहा कि अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी), अनुसूचित जातियों (अनुसूचित जातियों) और अनुसूचित जनजातियों के बीच आरक्षण के लाभ वास्तव में योग्य लोगों को नहीं मिलते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के तहत 100 प्रतिशत आरक्षण संभव नहीं है क्योंकि बाहरी सीमा 50 प्रतिशत है जैसा कि इंद्रा साहनी मामले, 1992 में कहा गया है।

100 फीसदी का कोटा मनमाना और अनैतिक हो जाएगा। लोगों की निष्पक्ष स्वतंत्रता है और संविधान एक समुदाय के लिए लाभ प्रदान करके सभी के पूर्ण भेदभाव पर विचार नहीं करता है।
यह SC और OBC को उनके उचित प्रतिनिधित्व से भी वंचित करता है।

इनकंबेंट्स को सार्वजनिक नौकरियों के विशेषाधिकार से अन्याय से वंचित नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह कुछ लोगों का विशेषाधिकार नहीं है।

अन्यायपूर्ण और एकतरफा समान अधिकारों से वंचित करना और अनुच्छेद 51ए के तहत वरीयता की स्वतंत्रता से वंचित करना आवश्यक नहीं है।

यह असंवैधानिक है और संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून से पहले समानता), 15 (1) (नागरिकों के साथ भेदभाव), और 16 (समान अवसर) के नियमों का उल्लंघन है। यह ओपन रैंक के अधिकार पर भी प्रतिबंध लगाता है, क्योंकि एसटी और ओबीसी को पीछे छोड़ देने वाले सभी खाली पदों पर केवल एसटी ही कब्जा कर सकते हैं।

50 प्रतिशत की अनारक्षित सीटें सामान्य श्रेणी के लिए उपलब्ध नहीं हैं। यदि सभी सीटें सामान्य समूह के पास नहीं हैं, तो उन्हें आवंटित श्रेणियों द्वारा भी भरा जा सकता है।

SC ने 2000 के आदेश के तहत पहले से बनाई गई नियुक्तियों को रद्द नहीं करने की अपील को मंजूरी दे दी है। लेकिन उसने आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को भविष्य में इस तरह की व्यवस्था करने के खिलाफ चेतावनी दी है।

जिन नियुक्तियों को पहले ही रद्द नहीं किया गया है, वे बुकिंग कैप को भंग करने के मामले में अभी भी अशक्त और अमान्य पाए जाएंगे।

आंध्र प्रदेश सरकार ने 1986 में एक विशिष्ट आदेश जारी किया जिसे राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने खारिज कर दिया और 1998 में उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील खारिज कर दी।

हालांकि, 2000 में, राज्य ने एसटी आवेदकों के लिए अनुसूचियों क्षेत्रों में शिक्षक पदों पर 100 प्रतिशत आरक्षण का आदेश जारी किया। राज्य के उच्च न्यायालय ने इस आदेश को बरकरार रखा लेकिन बाद में इस निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।

न्यायालय ने OBC, SC और ST के लोगों की कठिनाइयों का प्रदर्शन किया, जो आरक्षण के ट्रिकल डाउन विधि से लाभ नहीं ले सके। अब तक, निर्दिष्ट समूहों के भीतर धनी और सामाजिक और आर्थिक रूप से विकसित वर्ग हैं, जिन्हें वास्तव में उन लोगों के लिए नीचे आने के लिए प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं है।
अब न्यायालय हकीकत को लगातार क्यों इग्नोर कर रहा है यह उसमें बैठे न्यायधीशों की मानसिकता को दर्शाता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने सिफारिश की कि सरकार समय-समय पर आरक्षण के हकदार लोगों की सूचियों को संशोधित करती है।SC/ST वर्ग की सूचियों को सिर्फ भारत की संसद संसोधित कर सकती है इसके अलावा कोई राज्य सरकार के कार्य क्षेत्र के बाहर है।

जैसा कि हमें ज्ञात है अखिलेश सरकार व योगी ने सरकार कुछ OBC वर्ग की जातियों को SC वर्ग में डालने की कोशिश की थी लेकिन संसद के ना पारित करने से यह अधर में चला गया।

सबसे ताज्जुब की बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय EWS( सवर्ण आरक्षण 10% ) पर आखिर चुप्पी मार कर क्यों बैठ गई है? क्या दूसरे देश की न्यायालय इस पर शुनवाई करेगी? यह आरक्षण की मूल भूमिका को ही नष्ट नहीं कर रही है? सवर्ण आरक्षण आने से क्या रिज़र्वेशन 50% का ग्राफ नही लांघा?

सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रेकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत सरकार, 1993: नौ जजों की इस बेंच ने अपने फैसले से न्यायपालिका की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की भूमिका को निर्णायक बना दिया । इस तरह भारत में उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में कोलिजियम सिस्टम की शुरूआत हुई और इससे न्यायपालिका में जजों की सामाजिक गैर बराबरी और बढ़ी।

मतलब हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में बैठे न्यायाधीश लोगों की नियुक्ति मेरिट के आधार पर नहीं होती। इनकी नियुक्ति सरकार की मंशा के अनुरूप व जुगाड़ व्यवस्था के जरिये होती है। यहां उच्चतम न्यायालय का दोगलापन क्यों नहीं दिखता।

इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत सरकार (AIR 1993 SC 477): सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश के जरिए पहली बार आरक्षण में आर्थिक आधार (क्रीमी लेयर) को शामिल कर लिया, जबकि संविधान में इसकी कोई चर्चा नहीं थी। संविधान में पिछड़ेपन का आधार सामाजिक और शैक्षणिक माना गया था। इस फैसले का आरक्षण व्यवस्था पर गहरा असर पड़ा और ओबीसी के प्रमोशन में आरक्षण का रास्ता बंद हो गया ।

2019 संवैधानिक (103 वां संशोधन) अधिनियम ने सरकारी रोजगार और शैक्षणिक संस्थानों में अनारक्षित समूह में “आर्थिक रूप से वंचित” के लिए 10 प्रतिशत कोटा का आह्वान किया।सवाल वही फिर से 50% का कैप ब्रेक हुआ या नहीं? चुप क्यूँ है न्यायालय?

सुप्रीम कोर्ट इसके पहले SC/ST एक्ट पर भी रोक लगा चुकी है।

सुप्रीम कोर्ट विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति में 200 पॉइंट रोस्टर सिस्टम पर रोक लगाई।

सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ बघेल सरकार की आरक्षण व्यवस्था को असंवैधानिक बताया ।

सुप्रीम कोर्ट ने SC/ST वर्ग के प्रोमोशन में आरक्षण को गलत ठहराया ।

सुप्रीम कोर्ट की नजर में सिर्फ सवर्ण आरक्षण ( EWS reservation 10%) मुख्य मुद्दा नहीं है । इसके अलावा सभी नेशनल इंटेरेस्ट के मामले हैं।

आखिर पेट में मरोड़ कुछ के लिए है और कुछ के लिए नहीं, कोई जवाब मी लॉर्ड?

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