20 लाख करोड़ का महंगा जुमला: किसके लिए 2 और किसके लिए 00,00,00,00,00,00,0 शून्य?

BY- बादल सरोज

20 लाख करोड़ रुपयों के पैकेज का जुमला, खुद मोदी के पैमाने से भी अब तक का सबसे अधिक ऊंचाई पर फेंका गया जुमला है। एक झूठ को हजार बार बोलो तो वह सच लगने लगता है, कहने वाले हिटलर के मंत्री गोयबेल्स का यह भी कहना था कि झूठ हमेशा बड़ा बोलना चाहिए।

इतना बड़ा कि लोग अचंभित रह जाएँ और कहें कि इतनी बड़ी बात कोई झूठ कैसे बोल सकता है? 20 लाख करोड़ का जुमला ऐसा ही बड़ा वाला झूठ है। इतना बड़ा दावा कि उसके नाप के वस्त्र सीने में वित्त मंत्राणी सहित पूरे वित्त मंत्रालय को 5 दिन हर रोज डेढ़-डेढ़ घंटा – कुल मिलाकर साढ़े सात घंटे – लग गये, इसके बाद भी उसकी निर्वसनता ढांपा नहीं जा सका। बिना किसी राजनीति के शुध्द अर्थशास्त्र की कसौटी पर स्वयं वित्त मंत्राणी जी द्वारा प्रस्तुत विवरण को जांच लेते हैं।

पैकेज की जरूरत क्यों? देश में एक असाधारण स्थित पैदा हो गयी है। महामारी और 50 दिन के लॉकडाउन ने देश की जनता के 80-90 फीसद हिस्से को मोहताज कर दिया है। अर्थव्यवस्था को जमीन पर ला दिया है। इससे बाहर आने और राहत पहुंचाने के लिए विशेष उपाय जरूरी हैं।

जाहिर है कि इन उपायों का निर्धारण उन वजहों के आधार पर होगा, इसलिए पहले देखते हैं कि हुआ क्या है? वह बीमारी क्या है, जिसका इलाज होना है? और यह पैकेज उसके लिए क्या प्रावधान-समाधान लाता है।

सबसे पहली बीमारी तो बीमारी खुद है। हर रोज हर घंटे मामले बढ़ रहे हैं – बीमारी आंकड़ों से ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। डब्लूएचओ के मुताबिक़ इसके तीन ही इलाज है : टैस्ट, टैस्ट और टैस्ट। और ठीक यही काम है, जो मोदी सरकार नहीं कर रही है।

जहां बीमारी पहली बार आयी, उस चीन ने हरेक नागरिक का टेस्ट अनिवार्य कर दिया। स्पेन में 10 लाख की आबादी में 50 हजार टेस्ट हो रहे हैं। भारत में हर 10 हजार आबादी पर 1700 टेस्ट हो रहे हैं और उनकी भी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह हैं।

नतीजा यह निकला है कि भारत में लॉकडाउन से पहले 91 जिलों में 191 लोग संक्रमित थे जो 50 दिन के लॉकडाउन के बाद संक्रमित जिलों की संख्या बढ़कर 550 हो गयी है।

कुल मरीज 22 मई की सुबह तक 1 लाख 18 हजार 447 थे – और मौतों की संख्या 3583 हो चुकी थी। 8 मई के बाद हर रोज 3600 नए केस आ रहे थे, 20 मई से हर रोज 5000 आने लगे हैं। 20 लाख करोड़ के पैकेज में इसके लिए कुछ है नहीं।

हमारे डॉक्टर्स, नर्स, मेडिकल बिरादरी बिना सुरक्षा उपकरणों के है, उनके लिए कुछ है? नहीं है। भारत में प्रति हजार आबादी पर 0.8 डॉक्टर है, 0.7 पलंग है। उसे बढ़ाने के लिए कुछ है? नहीं। स्वास्थ्य पर हमारा खर्च जीडीपी के 1 प्रतिशत से भी कम है – उसे बढ़ाकर कम से कम 3 प्रतिशत तो करना था, नहीं किया।

फिर कैसे रुकेगी यह बीमारी! दुनिया ने सारे प्राइवेट अस्पताल अपने हाथ में ले लिए है। स्पेन में सारे अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण हो गया है। हम थाली बजा रहे हैं, मोमबत्ती जला रहे हैं, फूल बरसा रहे हैं – सब कर रहे हैं। बस वही नहीं कर रहे, जिसे करना चाहिए।

दूसरी असाधारण समस्या बड़े पैमाने पर उद्योग धंधे बंद होने की है। लॉकडाउन के चलते रोज कमाने खाने वाले लोग घर बैठ गए। छोटी दुकाने, रेहड़ी, खोमचे, सब्जी, दूध, अण्डा बेचना-खरीदना नामुमकिन हो गया। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार कोई 14 करोड़ बेरोजगार हो गए हैं।

अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सर्वे मुताबिक़ शहरों में काम करने वाले हर 10 में से 8 का काम छिन गया। मतलब यह कि अब उनके पास ज़िंदा रहने, खाने, मकान किराया देने के लिए एक रूपये की भी आमदनी नहीं बची। इनकी आमदनी बचाने-बढ़ाने के लिए कुछ किया?

पैकेज कहता है कि उद्योगों में नई जान फूंकी जाएगी। पहली बात तो इस पैकेज में उद्योग का अर्थ सिर्फ कॉर्पोरेट है – गणित के अंकों में 20 लाख करोड़ 2 के आगे 13 शून्य होता है। इस पैकेज में कारपोरेट के लिए 2, सबकुछ का दोगुना है, बाकी सबके लिए 13 जीरो हैं। बाजार और उद्योग में जो घट रहा है, उसे मंदी कहते हैं और यह मंदी पहले से थी – कोरोना ने इसे और महामारी बना दिया।

सरकार इसे मंदी (रिसेशन) की बजाय स्लो-डाउन कहती है। चलिए वही सही, स्लो-डाउन हो या मंदी, मतलब एक है। बाजार में माल का अट जाना, लोगों का उसे न खरीद पाना, क्योंकि उनकी जेब में पैसा नहीं है। तो रास्ता क्या हुआ? लोगों की खरीदने की क्षमता बढ़ाइए!

उनके पास पैसे होंगे, तो मांग बढ़ेगी। मांग बढ़ेगी, तो वे बाजार में निकलेंगे ,माल बिकेगा – मांग की पूर्ति के लिए उद्योग चलेंगे। जो फैक्ट्रियां बंद हो गयी हैं, वे खुलेंगी। लघु और मध्यम, कुटीर और वृहदतम – सब उद्योग चलेंगे। बिस्किट बिकेगा – कपडे बिकेंगे – साइकिल बिकेगी – दवाएं बिकेंगी – बाकी सब भी खरीदा जाएगा।

इसके लिए उन्हें लोन देने के नहीं, पैसा देने के रास्ते खोजने होंगे। यह रास्ते इतिहास में भी हैं, अर्थशास्त्र में भी हैं। समाजवाद में ही नहीं, पूंजीवाद में भी हैं। अमरीका में 1933 से 39 के बाद आयी महामंदी – द ग्रेट डिप्रेशन – से निबटने के लिए राष्ट्रपति रूजवेल्ट न्यू डील नाम की योजना लाये थे और हाईवे, सरकारी बिल्डिंगें, पुल, बाँध और न जाने क्या-क्या सरकारी खर्चे पर सरकार की तरफ से बनवाना शुरू करके बड़े पैमाने पर रोजगार दिया।

उससे अमरीकियों की जेब में पैसा पहुंचा, खरीदने की ताकत आयी – मंदी छटक के दूर चली गयी। 2008 की मंदी में चीन ने यही किया। अभी कोरोना के समय भी चीन और अमरीका यही कर रहे हैं। अमरीकियों को चैक दिए जा रहे हैं।

एक अर्थशास्त्री थे जॉन मेनार्ड कीन्स, उन्होंने कहा था कि रोजगार पैदा करना सरकार का काम है। यदि वह 100 रूपये का रोजगार पैदा करती है, तो बाजार में 300 रुपयों की गतिविधि होती है। इस 20 लाख करोड़ के पैकेज में इस बारे में एक शब्द नहीं है।

कारपोरेट को पैसा दिया – उद्योगो को छूट दी – 8 घंटे की जगह 12 घंटे काम कराकर श्रम की लूट दी – इस सबके बाद भी आखिर उद्योग करेंगे क्या, जब माल ही नहीं बिकेगा? जाहिर है, ये सब पैसा भी एनपीए बनेगा और बट्टे खाते में जाएगा।

इस तरह यह पूंजीवाद भी नहीं है – यह दरबारी पूंजीवाद है। खजाने के गहनों को दरबारियों के बीच बांटकर उन्हें और रईस बनाना। महल के अंदर-अंदर ही सब बाँट लेना, भले बाहर लोग भूख-प्यास से मरते रहें। मोदी और उनकी वित्तमंत्राणी भूल गयी हैं कि देश महल नहीं है, उसके बाहर है।

ठीक रास्ता यह होता कि हर गैर आयकरदाता परिवार के खाते में तीन महीने तक 7500 रुपये महीने डाले जाते। हर परिवार को 10 किलो प्रतिव्यक्ति अनाज गेंहू, दाल, चावल, तेल, नमक अगले छह महीने तक दिया जाता। यह सब करने की बजाए कारपोरेट के लोन बढ़ाने, उसे सब्सिडी देने, ब्याज घटाने और माफ़ करने, श्रम क़ानून हटाने जैसे उपाय लाये हैं। ये ऐसी दवा है, जो बीमारी से अधिक खतरनाक है।

तीसरी असामान्य मुश्किल है लाखों लोग – कोई आश्चर्य नहीं कि उनकी संख्या करोड़-दो करोड़ हो। अपने काम की जगहों से वापस लौट रहे हैं – पैदल-पैदल, भूखे-प्यासे, मरते-गिरते। बच्चे, बूढ़े, गर्भवती महिलायें, सामान सर पर ढोती बच्चियां – जिनके दृश्य देश भर में दिख रहे हैं, वे मारे जा रहे हैं।

कभी रेल से कटकर, कभी सड़क पर कुचल कर, कभी भूख और लम्बी दूरी से थककर। इतना बड़ा महापलायन एक साथ भारत ने कभी नहीं देखा। इनके बारे में प्रधानमंत्री के मुंह से एक शब्द नहीं निकलता।

झारखंड के मजदूर जब मारे जाते हैं, तो योगी उन्हें और उनके साथ के घायलों को एक ही डम्पर जैसे ट्रक में ठूंसकर रांची भेज देते हैं। जीते जी भी सम्मान नहीं मिला- मरने के बाद भी अपमान और जिल्लत मिल रही है।

मगर यह समस्या केवल तात्कालिक मानवीय त्रासदी भर नहीं है। यह देश की डेमोग्राफी में बड़ा गुणात्मक फेरबदल है। उनकी गाँव वापसी गाँव को तीन चुनौती पेश करेगी-

1. आमदनी रुकेगी,

2. बोझ बढ़ेगा

3.संसाधन बंटेंगे

उनके लिए क्या है? कुछ नहीं – सिर्फ लफ्फाजी है। खोखली बाते हैं, जैसे मनरेगा में बिना पैंसा बढाए 40 प्रतिशत काम बढ़ाने का दावा। इससे तबाह खेती और बर्बाद गाँव और दबाब में आएंगे। रबी की फसल के दाम न मिल पाने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमर पहले ही टूट गयी है। लागत नहीं निकली, आत्महत्याएं किसानों की पहचान बन गयी हैं। उनके लिए पैकेज में क्या है? कुछ नहीं, बल्कि इससे उलट खरीद का निजीकरण है। इससे किसान ही नहीं लुटेगा, बल्कि एसेंशियल कमोडिटी एक्ट हटाने से खाद्य सुरक्षा भी बर्बाद हो जाएगी।

चौथी विपदा आपदा को अवसर मानने की खतरनाक समझदारी है: अवसर किस बात का? सारे क़ानून बदल देंगे, राज्य सरकारों पर अंकुश बढ़ाकर उनके संवैधानिक अधिकार सिकोड़ देंगे। भूमि हड़प लेंगे। इस संकट के बीच भी उनसे जीएसटी वसूली जा रही है। काम आपदा राहत कोष में उनके हिस्से से हो रहा है। मोदी उसे अपने पैकेज में जोड़ रहे हैं। राज्यों से कहा जा रहा है कि वे रिज़र्व बैंक से ऊंची दरों पर कर्जा लें। इस तरह संकट को स्थायी बनाया जा रहा है।

तीन तरह के झूठ होते हैं : झूठ, सफ़ेद झूठ और आंकड़ों का झूठ। बजट में जितने भी खर्चे थे, जितनी भी सरकारी योजनाएं वर्षों से चल रही थी, उन सबको जोड़जाड़ कर 20 लाख करोड़ बना दिया गया। अर्थशास्त्रियों के अनुसार सरकार ने इसमें जीडीपी के 1 फीसद से भी कम पैसा जोड़ा है।

सरकार का अतिरिक्त खर्चा 1 लाख 80 करोड़ से 2 लाख करोड़ के बीच है, जबकि जीडीपी की एक प्रतिशत करीब 2 लाख 11 हजार करोड़ होता है। इसमें नया कुछ नहीं, सब बजट के खर्चे हैं। लगता है, वे भारत की जनता को अपने भक्तों की तरह बुध्दिहीन समझते हैं।

ढपोर शंख से निचोड़ शंख: इस तरह यह दो लाख करोड़ भी जनता से बड़ी कीमत लेकर दिया गया है। श्रम क़ानून सिर्फ बानगी है। किसानों के क़ानून बदल दिए गए। कारपोरेट सब जगह आ गयी। विदेशी पूंजी डिफेन्स और आणविक ऊर्जा में आ गयी, अंतरिक्ष कार्यक्रमों तक में आ गयी।

सारे पब्लिक सेक्टर बेचने का एलान करता है यह पैकेज। ऐसा कोई इलाका नहीं, जहां विदेशी पूंजी न आयी हो। यह एनीमिया के मरीज का खून निकाल कर उसी को चढ़ा देने जैसा है, बल्कि उस खून में से भी बचाकर कारपोरेट को चढ़ा देना है।

इस पैकेज की आड़ में भारी पैमाने पर निजीकरण, विदेशी कंपनियों को छूट, उस नारे का ठीक उलटा है, जिसे देकर यह लाया गया है-आत्मनिर्भरता। आत्मनिर्भरता आजादी के संग्राम की उपलब्धि है – दादा भाई नौरोजी से लेकर भगत सिंह तक का सपना और खाका है, संविधान में वर्णित है।

इन्होने ठीक उसी को तोड़ा है, उसी का नाम देकर। सारे क्षेत्र विदेशी और देसी कारपोरेट के लिए खोल दिए गए हैं, सारे क्षेत्र! यह दरबारी पूंजीवाद के सामने 130 करोड़ जनता और भारत की संपत्ति को परोस देना है।

ऊपर से ठीक इसी दौर में देश की एकता को तोड़ने की लगातार साजिश जारी है, हिंदुत्व के एजेंडे को बढ़ाया जा रहा है। हिन्दू-मुस्लिम करके कोरोना को टोपी पहनाई जा रही है, जबकि तब्लीगी मरकज में 1700 लोगों में 23-24 ही पॉजिटिव निकले थे!

अहमदाबाद कोरोना से बजबजा रहा है – ट्रम्प का नमस्ते बोल रहा है, मगर मीडिया, भाजपा और आरएसएस हिन्दू-मुसलमान में लगा है। अब वापस आते मजदूरों पर ठीकरा फोड़कर मनुस्मृति दोहराई जा रही है और असहमति रखने वाले जेल में डाले जा रहे हैं। एनआरसी-सीएए के सवाल पर आंदोलन करने वाले टारगेट किये जा रहे हैं। आतंकवाद के नाम पर बने क़ानून आम नागरिकों और डॉ. आंबेडकर के पौत्र दामाद प्रो. आनन्द तेलतुम्बडे आदि बुद्धिजीवियों पर आजमाए जा रहे हैं।

सवाल कोरोना महामारी भर का नहीं। हर मोर्चे पर विफल मोदी सरकार जनता को भूखा-प्यासा-बेरोजगार बनाने के अलावा दो और जघन्य काम कर रही है। एक तो अमरीका और विदेशी पूंजी की मातहती कबूल करके भारत को असुरक्षित बना रही है और दूसरा, 7000 वर्ष पुरानी सभ्यता की सभी अच्छाइयों को खत्म कर रही है। “डग डग रोटी, पग पग नीर” वाले भारत को “डग डग लाठी, पग पग मौत” के भारत में बदल रही है। इसलिए यह पैकेज सिवाय कार्पोरेटी हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के अलावा कुछ भी नहीं है।

बादल सरोज पाक्षिक लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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