अर्णब गेट से लाल किले तक : कारपोरेट के हरम की साजिशों के कुहासे में गणतंत्र

 BY- बादल सरोज

अर्णब गेट से लाल किले तक : कारपोरेट के हरम की साजिशों के कुहासे में गणतंत्र

अर्नब गोस्वामी और टीवी चैनल्स की लोकप्रियता जांचने वाली एजेंसी बार्क के प्रमुख पार्थो दासगुप्ता के बीच हुई व्हाट्स एप्प चैट्स के जो दस्तावेज मुम्बई पुलिस ने अदालत में पेश किये हैं, वे सिर्फ देश की सुरक्षा के हिसाब से ही चिंताजनक और चौंकाने वाले नहीं हैं, वे डराने वाले हैं।

वे भाजपा गिरोह द्वारा इस देश के गणतंत्र को भुरभुरा और असुरक्षित बनाने और संविधान की मर्यादा को खण्डित करने वाले भी हैं। किसी के द्वारा आज तक उनका खंडन न करना जहां उनकी अकाट्य सत्यता का सबूत है, वहीँ सत्ता और सरकार की ओर से इन स्तब्धकारी खुलासों पर चुप्पी साध लेना लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में निहित जवाबदेही से मुकरना और अपने चाकरों के जुर्मो में आपराधिक हिस्सेदारी के उत्तरदायित्व से कन्नी काटना है।

पिछली एक सदी में इससे भी छोटे मामलों के सामने आने पर दुनिया भर की सरकारों को इस्तीफे तक देने पड़े हैं। मगर मौजूदा सरकार ढीठता और निर्लज्जता के मामले में अब तक की सबसे मट्ठर सरकार है। इससे ऐसी उम्मीद करना किसी भेड़िये से शाकाहारी होने की उम्मीद करने से भी ज्यादा है।

इन व्हाट्स एप्प चैट्स में मोदी सरकार के गुजरे वर्षों में लिया गया ऐसा शायद ही कोई गोपनीय – टॉप सीक्रेट – फैसला हो, जिसकी अग्रिम जानकारी या पूर्व सूचना अर्नब गोस्वामी के पास नहीं थी और जैसा कि उजागर हुयी चैट्स से सामने आया है, बार्क वाले पार्थो दासगुप्ता तक न पहुँची थी।

वह चाहें वेंकैया नायडू को उपराष्ट्रपति बनाने वाला फैसला हो, स्मृति ईरानी को सूचना प्रसारण मंत्रालय सौंपे जाने की खबर हो, मोदी और अमित शाह के बाद तीसरा बन्दा अर्नब ही था – जिसके साथ चौथा बनने वाला पार्थो था – जो कुछ हजार डॉलर और पीएम और ए एस (अमित शाह) को साधने के वचन के एवज में उसके चैनल की रेटिंग बढ़ाने के लिए धाँधली-दर-धांधली किये जा रहा था।

इन चैट्स का सबसे हैरान और विचलित करने वाला हिस्सा है फर्जी राष्ट्रवाद उभारने के लिए पुलवामा में हुयी सैनिकों की शहादत पर उल्लास से कूदना, लार टपकाना और चुनावों में साहब की पगलाने वाली जीत की उम्मीदों पर बलिहारी जाना। यह वह अमानवीय किलर इंस्टिंक्ट है, जिसे राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ाकर सैनिकों की लाशों के ढेर को सत्ता तक पहुँचने की सीढ़ी बनाने में कोई गुरेज नहीं है।

बालाकोट जैसे अतिगोपनीय फैसलों की पूर्व सूचना अर्णब के पास होना और उसका आगे तक पहुँचना, कश्मीर से धारा 370 हटाने की माहिती पहले से इसे होना – ऐसी ही उन हजारों सूचनाओं में से एक है, जो इन व्हाट्स एप्प चैट्स में सामने आयी हैं। साफ़ है कि अर्णब तक इन बातों को पहुंचाने वाला कोई छुटका बाबू या कम्प्यूटर ऑपरेटर नहीं है, खुद श्रीमुख से यह जानकारियां रिसी और टपकी हैं।

यह सिर्फ गोपनीय और अति-गोपनीय सूचनाओं की सार्वजनिकता और उसमें निहित खतरों और आशंकाओं का मामला नहीं है। यह उससे आगे की बात है। यह जनभावनाओं को भटकाने और भड़काने और इस तरह गणतंत्र के बुनियादी तत्वों को दरकाने का मामला है।

यह फ़ाउल प्ले भर नहीं है – यह कारपोरेट के हरम का ऐसा धतकरम है, जिसमें देश और जनता के विरुद्ध साजिशों और षडयंत्रों का जाल बुना और बिछाया जाता है। कार्पोरेटी हिंदुत्व की विनाश यात्रा का रास्ता हमवार करने के लिए इस जाल का मखमली कालीन बिछाया जाता है।

26 जनवरी के दिन ठीक इसी तरह की साजिशों को अमल में लाकर किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन को बदनाम करने और उसे कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें की गयी हैं। आजादी के बाद पहली बार इतनी भारी तादाद में किसानों की अगुआई में देश की जनता सभी 700 जिलों में तिरंगे झण्डे लेकर गणतंत्र दिवस की परेड करने निकली।

ढाई हजार से ज्यादा स्थानों पर लाखों ट्रैक्टर्स तिरंगा झण्डा लगाकर आजादी और गणतंत्र की हिफाजत का अलख जगाने निकले। दुनिया के अनेक देशों में रहने वाले भारतीयों ने भी भारत के राष्ट्रीय ध्वज को लेकर एकजुटता कार्यवाहियां की। निहायत सकारात्मक तरीके से अभिव्यक्त हो रहे इस अभूतपूर्व जनआक्रोश का आदर करने और उसे सम्मानजनक जगह देने के बजाय कारपोरेट के हरम में बैठे मीडिया ने दिल्ली की दो अपवाद घटनाओं को तूल देकर भारतीय जनता के इस प्रतिरोध उत्सव के खिलाफ युद्ध-सा ही छेड़ दिया।

हालांकि शाम तक यह उजागर भी हो गया कि ये दोनों ही घटनाएं  आईटीओ पर भिड़ंत और लालकिले पर राष्ट्रीय ध्वज के नीचे कोई झंडा फहराने की भर्त्सना योग्य कार्यवाही  को अंजाम देने वाले सत्ता पार्टी से जुड़े हुए वे करीबी लोग थे। जो न तो किसान थे ना ही सिख। इनमें से एक झण्डा वाले दीप सिद्धू – की तस्वीरें खुद मोदी के साथ सार्वजनिक हो चुकी हैं।

यह भी सामने आ चुका है कि यह उत्पाती भाजपा के सांसद सनी देओल का चुनाव एजेंट भी था। पुलिस बंदोबस्त के बीच इसके वहां तक पहुँचने और पुलिस वालों की निष्क्रिय निगरानी के बीच झण्डा फहराने की पहेली का समाधान मोदी के साथ खिंचे इसके फोटो से हो जाता है।

पुलिस अभी तक नहीं बता पायी है कि संयुक्त किसान मोर्चे की ट्रैक्टर यात्रा के लिए गाँवों और दूरदराज के रास्ते देने में भी हीलेहवाले और आनाकानी करने के बीच उसने किसान मोर्चे में जो शामिल ही नहीं था। उस एक छोटे से संदिग्ध गुट को आईटीओ से होते हुए लालकिले तक जाने की अनुमति कैसे दे दी?

जाहिर है, यह इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन को बदनाम करने और उसके प्रति उमड़ रहे जनसमर्थन को गुमराह करने की बड़ी चाल थी। टेलीविज़न मीडिया जिस तरह लहक-लहक कर इन दो अपवाद घटनाओं को अतिरंजित रूप में दोहरा रहा था और बाकी देश भर में हुयी कार्यवाहियों को छुपा रहा था वह क्यों और कैसे, किसलिए और किसके लिए था, इसकी कुंजी अर्नब-गेट के ताले की चाबी से मिलान करके समझी जा सकती है।

मौजूदा हुक्मरानों का कुल-कुटुंब इस तरह की आपराधिक तिकड़मों में माहिर है। डा. राजेन्द्र प्रसाद (जो बाद में भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने) ने देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल को 14 मार्च सन् 1948 को भेजे एक पत्र में लिखा था कि “मुझे बताया गया है कि आरएसएस के लोगों ने झगड़ा पैदा करने के लिए मंसूबा बनाया है, उन्होंने बहुत सारे लोगों को मुसलमान पहनावा पहनाकर, मुसलमान जैसा दिखने वालों के रूप में हिन्दुओं पर आक्रमण करने की योजना बनाई है, ताकि झगड़ा पैदा हो और हिन्दू भड़क जायं।

इसी के साथ इनके साथ कुछ हिन्दू होंगे, जो मुसलमानों पर हमला करेंगे, ताकि मुसलमान भड़क जाएं। इस सबका परिणाम यह होगा कि हिन्दू-मुसलमान भिडेंगे और एक बड़ा झगड़ा पैदा हो जायेगा।” इस बीच ऐसी अनगिनत घटनायें सामने आ चुकी हैं। फर्क यही है कि तब यह गिरोह सिर्फ हिन्दू-मुसलमान खेल रहा था।

आज इसके निशाने पर इसके अलावा, इसके साथ साथ मजदूर और किसान हैं, लोकतंत्र और संविधान है, असल में तो पूरा हिन्दुस्तान है। इसलिए अब इसकी साजिशें नए-नए आयाम लेती जा रही हैं। हिटलर की तरह जर्मन संसद राइख़स्टॉग पर नकली हमले जैसी पटकथाएं भारत में मंचित करने की कोशिशें जारी हैं। मंशा स्पष्ट है और वह यह है कि देश का जो होना है, सो हो; लेकिन कारपोरेट की लूट में रत्ती भर अवरोध नहीं आना चाहिए।

उनके लिए दिक्कत की बात यह है कि जनता अभी भी इनके उकसावे या भुलावे में नहीं आ रही है। वह सब समझ भी रही है और इस कुहासे को चीरने के लिए एकजुट भी हो रही है। सारे मीडिया और पूरी सरकार के झूठे और साजिशी प्रचार के बावजूद करोड़ों लोग किसानो की गणतंत्र परेड के साक्षी और भागीदार बने ही।

यही एकता इन्हे सबसे ज्यादा डराती है। जरूरत इन्हे और भी ज्यादा डराने और इन्हे सभ्यता की बसाहटों से बाहर खदेड़ आने की है, मतलब एकता और अधिक बढ़ाने की है। आने वाले दिन इसी चुनौती से जूझने और इस मकसद को हासिल करने के होंगे, यह तय है।

लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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