सुदर्शन न्यूज़ के प्रसारण पर कोर्ट की रोक साम्प्रदायिक होते चैनलों के लिए एक सबक है

 BY- सलमान अली

सुदर्शन न्यूज़ के संपादक सुरेश चव्हाणके को आप जब भी सुनते होंगे हमेशा यही पाते होंगे कि वह सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम की बात करता है। अपने प्रोग्राम में वह सिर्फ मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत फैलाने का काम करता है। इससे एक तो उसे टीआरपी मिल जाती है और साथ ही साथ बहुसंख्यक आबादी के एक बड़े तबके का साथ।

यह जो तबका सुरेश के लिए बोलता है दरअसल उसे यह पता ही नहीं कि देश कैसे बना है। इस तबके को सिर्फ इसलिए तैयार किया जा रहा है कि वह देश में एक सोच वाली पार्टी और संगठन का सहयोग करें।

इनको तैयार करने में न्यूज़ चैनल मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। जिसमें राष्ट्रीय चैनल भी शामिल हैं। आजतक से लेकर न्यूज़18, रिपब्लिक भारत, एबीवीपी और ज़ी न्यूज़ जैसे बड़े चैनल लगातार सिर्फ पाकिस्तान, हिन्दू-मुस्लिम को लेकर ही डिबेट कराते रहते हैं।

देश की मुख्य समस्या की जगह इनके डिबेट प्रोग्राम 90 प्रतिशत साम्प्रदायिक तरीके से रन किये जा रहे हैं। इसका असर भारत की उस आबादी पर पड़ रहा है जो अभी 10वीं या 12वीं पास करके आगे बढ़ रहे हैं।

उच्च शिक्षा के लिए आगे बढ़ते यह युवा देश की कई सेवाओं में अपना योगदान देंगे। यदि अभी इन्हें हम साम्प्रदायिक सद्भाव की सही समझ नहीं समझा पाए तो यह भारत के लिए एक घातक बीमारी के रूप में बाद में सामने आएगी।

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हम समझ ही नहीं पाएंगे कि कब भारत भी उन देशों के जैसे आंतरिक युद्ध में तब्दील हो जाएगा जहां हर रोज लोग अपनी जान सिर्फ साम्प्रदायिकता के कारण खो रहे हैं। इसके लिए सीरिया, ईरान, अफगानिस्तान जैसे देशों का उदाहरण तो लिया ही जा सकता है साथ ही अमेरिका की नस्लभेदी स्थिति को समझना पड़ेगा।

सीरिया, ईरान भी एक समय सामान्य तौर तरीकों के साथ काम कर रहे थे। वहां भी नॉर्मल तरीके से दुकाने खुलती थीं, किताबें छपती थीं लेकिन यह सब बदल गया। अब सिर्फ बम धमाके की आवाज, बंदूकों से लैश लोग नजर आते हैं।

महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा दयनीय है, उन्हें सामान्य जीवन जीने में कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें बच्चों को भी संभालना है और अपनी जिंदगी भी बचानी है।

इन देशों में जो वर्तमान स्थिति है वह एकदम से नहीं हुई, कम से कम 50 साल की एक लंबी साम्प्रदायिक सोच के बाद हुई है। 50 साल पहले जो साम्प्रदायिक सद्भाव खराब करने का काम शुरू हुआ वह अब जाकर ऐसे माहौल में पहुंच पाया है।

कुछ ऐसा ही हम लोग भारत में कर रहे हैं। 1984 1992, 2002 जैसे दंगों में हजारों लोगों की जान जाने के बाद अब भी हम नहीं समझ पा रहे हैं। हम लगातार नफरत के एक ऐसे पेड़ को सींचते जा रहे हैं जो फल की जगह केवल कांटे ही देगा।

इनमें नेताओं के साथ-साथ मीडिया और आम जनता बखूबी अपनी जिम्मेदारी निभा रही है। वर्तमान में साम्प्रदायिक नेताओं से ज्यादा गोदी मीडिया नफरत फैलाने का काम कर रही है।

इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि दिल्ली हाई कोर्ट को एक चैनल के प्रोग्राम के प्रसारण को रोकना पड़ा। कुछ लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर भी सवाल कर सकते हैं। लेकिन क्या कोई पत्रकार एक धर्म विशेष पर इसलिए हमलावर हो सकता है क्योंकि वह पढ़ लिखकर नौकरी पा जाते हैं। यदि नहीं तो वह असल में पत्रकार है ही नहीं।

ऐसा एक केवल सुदर्शन चैनल नहीं है और भी हैं लेकिन इन नफरती चैनल का सरदार वह ही है। सुदर्शन चैनल पर लगातार मुसलमानों के खिलाफ खबरें चलती रहती हैं। न तो इनपर रोक लगती है और न ही बाद में ऐक्शन।

आप यह भी कल्पना करिए कि देश की सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी को जिहादी का अड्डा बता दिया जाता है और हजारों-लाखों लोग उसको खूब शेयर भी करते हैं। यह कितनी शर्म की बात है कि देश के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय के छात्रों को एक समाचार चैनल के खिलाफ अदालत में याचिका डालनी पड़ी।

यही नहीं जिस नफरती वीडियो को लेकर हाई कोर्ट ने रोक लगाई है उसमें प्रधानमंत्री को भी टैग किया गया है। बावजूद इसके प्रधानमंत्री का इस मुद्दे पर कोई रिएक्शन नहीं आया। इतना सबकुछ होने के बाद भी प्रधानमंत्री की चुप्पी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।

आईपीएस एसोसिएशन के साथ ही कई आईएएस अधिकारियों ने भी इस मुद्दे पर अपनी चुप्पी तोड़ी। उन्होंने सुदर्शन चैनल को आड़े हाथों लेकर खूब बरसे। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शांत बने रहे।

बाकी चैनलों की भी यह स्थिति आये उससे पहले ही उन्हें सतर्क होने की जरूरत है। लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तम्भ कहा जाता है और यदि वह ही नेताओं की गोद में बैठ जाएगी तो फिर देश के लिए काफी खतरे की घंटी है।

 

 

 

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