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बिहार विधानसभा के साथ उपचुनाव: दांव पर संविधान और संसदीय लोकताँत्रिक प्रणाली

 BY- बादल सरोज 

बिहार विधानसभा चुनाव के अलावा देश में 56 सीटों पर विधानसभाई उपचुनाव भी होने हैं। इनमें से 28 उपचुनाव सिर्फ एक राज्य मध्यप्रदेश में होने हैं। जिस तरह बिहार के आम चुनाव सरकार के बनने-बिगड़ने का फैसला करने जा रहे हैं उसी तरह का महत्त्व मध्यप्रदेश की 28 सीटों का है।

इनके परिणाम तिकड़म, दलबदल, विश्वासघात, खरीद-फरोख्त और संसदीय प्रणाली की सारी परम्पराओं, नैतिकता की धज्जियां उड़ाकर बनाई गयी शिवराज सिंह चौहान सरकार के रहने न रहने का निर्णय सुनाएंगे। इन्हें लेकर खुद को खुद ही ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी पार्टी मानने वाली भाजपा में घबराहट और बेचैनी दोनों है।

केंद्र और राज्य दोनों सरकारों में होने के बावजूद वह जीत के प्रति आश्वस्त नहीं है। उसे जनता के बीच वह लहर दिखाई दे रही है जो इस वक़्त भाजपा को हराने के लिए पूरी तरह संकल्पबद्ध है।

ग्वालियर-चम्बल संभाग में दलबदलू और सरकार गिराऊ छोटू सिंधिया के प्रति जनाक्रोश कई मायनों में ऐतिहासिक है। उनकी सभाओं में काले झण्डे दिखाए जाना और “गद्दार सिंधिया – वापस जाओ” के नारों का हजारों कंठों से एक साथ गूंजना पिछली कुछ सदियों में हुई पहली घटना है।

इससे पहले ये नारे सिर्फ वामपंथ और सीपीएम भर ने ही लगाए थे। कांग्रेस और भाजपा की ओर से इस तरह के नारे लगना तो असंभव था ही, समाजवादी या मध्यममार्गी राजनीतिक धारायें भी वह साहस नहीं जुटा पाई थीं जो साहस इस बार सिंधिया घराने की प्रजा मानी जाने वाली चम्बल की जनता दिखा रही है।

मुख्यमंत्री और सिंधिया के कई दौरे तथा सभाएं स्थगित करके सत्ता पार्टी ने एक तरह से मान लिया है कि अपने सारे कस-बल लगाकर भी वह इन्हे थामने में कामयाब नहीं हो पा रही है।

जनता जब गुस्से और खीज में होती है तो वह अभिव्यक्ति के लिए बड़े मौलिक तरीके, रूपक और बिम्ब भी खोज और गढ़ लेती है। सिंधिया के प्रभाव वाले इलाके में 16 सीटों पर उपचुनाव होने हैं और यहां की लोकभाषा में “कैंडिडेट कोई भी हो घटियाई को हराना है।”

चम्बल इलाके में घटियाई गद्दारी, धोखाधड़ी और विश्वासघात का समानार्थी है। सिंधिया इसके पर्याय हैं। यह गुस्सा सिर्फ उत्तरी मध्यप्रदेश तक ही सीमित नहीं है, प्रदेश के पश्चिमी और दक्षिणी कोने में भी दलबदलुओं के लिए इसी तरह के नारे बन रहे हैं।

अनूपपुर में दलबदल कर चार दिन के मंत्री बने बिसाहू लाल सिंह दोबारा से प्रत्याशी है; जनता ने उनका नाम “बिकाऊ लाल” कर दिया है और इस तरह अभियान शुरू होने से पहले ही उनका गुब्बारा पिचका दिया है।

इस गुस्से की तीन बड़ी वजहें हैं। एक: उन सभी 25 सीटों पर जनता खुद को अपमानित और लांछित महसूस कर रही है, जिन पर उसने शिवराज की यातना से मुक्ति पाने के लिए भाजपा को निर्णायक रूप से हराया था।

मगर जिन्हे जिताया था उन्ही ने 35-35 करोड़ रुपये लेकर जनादेश बेच दिया। (हालांकि इसमें भी एक दिलचस्प लोचा है, जिसे खुद एक बिके हुए विधायक ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया।

उसने कहा कि आप लोग खामखां 35-40 करोड़ की बात करते हैं। सिंधिया ने अपनी सैकड़ों एकड़ जमीन मुफ्त के भाव कबाड़ने के अलावा कितने पाये। ये सिंधिया जाने, मगर आदिवासी विधायकों को मात्र 20 और दलित विधायकों को 25 करोड़ रुपयों में निबटा दिया गया है।” साफ़ है कि भाजपा का हिंदुत्व में विश्वास अटूट है। वह घूसखोरी में भी मनुस्मृति का पूरे भक्तिभाव से पालन करती है।

दूसरा कारण एक आदिवासी ग्रामीण युवा द्वारा व्यक्त की गयी यह चिंता है कि “अगर इसी तरह खरीदी-बेची की परम्परा लोगों ने मान ली, तो वह दिन दूर नहीं : जब कोई ज्यादा बड़ी कारपोरेट कंपनी आएगी, भाजपा जैसी एक ऐसी पार्टी बनाएगी – जो चुनाव तो नहीं लड़ेगी, मगर चुनाव के बाद जीते सांसद विधायकों को खरीद कर राज करेगी।”

इस युवा को 70 के दशक के अफ्रीका और लातिनी अमरीका की जानकारी नहीं है, जहां ठीक यही होता रहा है। नाइजर सहित अनेक देशो में तो आज भी हो रहा है।

यही दोनों प्रतिक्रियाएं थी जिनकी आशंका से डरे संघ-भाजपा गिरोह ने सिंधिया के साथ आये 22 विधायकों के अलावा 3 और कांग्रेसी विधायकों से इस्तीफे दिलवाये थे। ताकि यहां हुयी ऊंच-नींच से बिगड़ा गणित वहां सुधारा जा सके। मगर सिर्फ चाहने से इच्छाएं थोड़े ही पूरी हो जाती हैं।

निर्णायक वजह तीसरी है, जो वस्तुगत है: मतलब जीवन की जीती जागती सच्चाई है। वह है मोदी-जनित विपदा। मध्यप्रदेश प्रवासी मजदूरों के सबसे बड़े सप्लायर प्रदेशों में से एक है। अकेले एक विधानसभा क्षेत्र – जौरा – में वापस लौटे प्रवासी मजदूरों की तादाद 20 हजार से ज्यादा है। बाकियों में भी इससे कम नहीं हैं। उन्होंने लॉकडाउन के दुःख और सदमे झेले हैं।

उनके परिवार उस त्रासदी को आज भी भुगत रहे हैं। वे ठप्प हुए रोजगार, मुंह छुपाने के लिए पाताल में ठिकाना ढूंढती अर्थव्यवस्था और तकरीबन मरणासन्न किसानों-मजदूरों को पूरी तरह मार डालने का बंदोबस्त करने वाले तीन खेती कानूनों और इतने ही लेबर कोड के असली चेहरे को औरों की तुलना में ज्यादा सही तरीके से पहचानते हैं। इसलिए इंतज़ार में हैं कि कब चुनाव हों और वे अपना गुस्सा निकालें।

ठीक यही वजह है कि 33 हजार के ज्यादा अंतर से जीतने वाली तब और अब दोनों सरकारों में मंत्री रही इमरती देवी अपने घबराये हुए समर्थकों को भरोसा देते हुए एक ऑडियो में कहती सुनाई दी हैं कि “चिन्ता मत करो, कलेक्टर अपने को चुनाव जितवा देगा।” उनकी उम्मीद और दावा गलत नहीं है। अब ठीक यही रास्ता है, जिसपर भाजपा भरोसा लगाए बैठी है।

कमिश्नरों, कलेक्टरों, पुलिस बलों में धड़ाधड़ तबादले और हर उपचुनाव की जगह अपने पालतुओं की तैनाती इसी तिकड़म का हिस्सा है। अपने राज के दौरान भाजपा ने नौकरशाही में भ्रष्ट और षडयंत्री नौकरशाहों की एक वफादार टीम बनाई है, उसे आईएएस और आईपीएस पर भी भरोसा नहीं है।

इसीलिए आधे से ज्यादा जिलों में प्रमोटी (तहसीलदार और एसडीएम से कलेक्टर और टीआई-सीएसपी से एसपी बने) अफसरों को मुख्य पदों पर बिठाने का तरीका आजमाया है।

इन्हीं के जरिये लोकतांत्रिक प्रतिरोधों और विपक्ष को कुचलने के धतकरम किये जाते हैं। पिछले दो महीनो के आंदोलनों में आंदोलनकारियों के विरूद्ध महामारी क़ानून के तहत मुकदमे लगाना इसी का उदाहरण है।

ठीक यही कारण है कि बिहार विधानसभा के साथ ये उपचुनाव भी सामान्य चुनाव नहीं है। दांव पर संविधान और संसदीय लोकताँत्रिक प्रणाली दोनों है। वह प्रणाली, जिसे आरएसएस के गुरु गोलवलकर ने मुण्ड गणना कहकर धिक्कारा है।

जिसे खेती-किसानी की बर्बादी वाले तीन कानूनों की जबरिया मंजूरी के लिए राज्यसभा के उपसभापति ने दुत्कारा है। विपक्ष की मौजूदगी के बिना तीन लेबर कोड बिल पारित करके लोकसभा ने नकारा है।

मगर बांग्ला भाषा के महाकवि चंडीदास पहले ही कह गए है कि “साबेर ऊपर मानुस सत्य!” इस मनुष्य को कहाँ ले जायेंगे? अब बर्तोल्त ब्रेख्त की कविता की तरह “दूसरी जनता चुन लेने” का विकल्प भी नहीं है। सो वे घबराये हुए हैं, बौराये हुए हैं।

चण्डीदास का यही मानुस था, जो 23 सितम्बर को मजदूरों का वेश धारण कर सडकों पर था, 24 और 25 सितम्बर को महिलाओं और किसानो का बाना पहने मुट्ठियाँ ताने पूरे मुल्क को अपनी ललकार से गुंजाये हुए था।

सितम्बर के तीसरे सप्ताह में गाँव-गाँव, बस्ती-बस्ती में पुतले फूंक रहा था। यही है जिसने आक्रोश को मुखर और संगठित प्रतिरोध में बाँधने की ऐसी शुरुआत की है, जो नीति के बदलाव और उन्हें थोपने वाली राजनीति के अंत तक पहुँचने की संभावनाओं से भरी-पूरी और रची-पगी है।

ये ऐसे दरिया हैं और इस कदर झूम के उट्ठे हैं कि इन्हें अब तिनकों से टाला जाना नामुमकिन है।

लेखक पाक्षिक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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