BY-ANURAG CHAUDHARY
कोविड -19 महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य और वैश्विक आर्थिक संकटों को जन्म दिया है। जैसा कि अर्थव्यवस्था लॉकडाउन के कारण चौपट हो रही है और हजारों फर्मों और कर्मचारियों के भविष्य को अंधकारमय कर दिया है । पिछले हफ्ते कुछ राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों में महत्वपूर्ण बदलाव करने का फैसला किया।
कई राज्यों में आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए ये बदलाव लाए जा रहे हैं। हालांकि, यह कदम उन मजदूरों के हित को कम कर सकता है, जो सबसे कमजोर वर्गों में से एक हैं जो स्वयं भी इस महामारी से प्रभावित हुए हैं।
मध्य प्रदेश ने फैक्ट्रियों अधिनियम की आवश्यकताओं के बिना कई व्यवसायों और इकाइयों को संचालित करने की अनुमति दी है।
उत्तर प्रदेश ने तीन साल की अवधि के लिए, मुट्ठी भर को छोड़कर, श्रम कानूनों से व्यवसायों और उद्योगों को छूट देने वाले अध्यादेश को मंजूरी दे दी थी । जिसको राजनीतिक दबाव में वापस लेने में ना नुकुर कर रही है
ऐसी खबरें हैं कि कई अन्य राज्य भी इसी तरह के उपाय अपना रहे हैं।
कुछ प्रमुख भारतीय श्रम विधान
श्रम भारतीय संविधान की समवर्ती सूची में आता है और केंद्र और राज्यों द्वारा कई कानून बनाए गए हैं।
चार प्रमुख केंद्रीय विधान हैं, जो भारत में श्रम कानूनों का मूल आधार हैं।
कारखानों अधिनियम, 1948:इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य कारखाने के परिसरों पर सुरक्षा उपायों को सुनिश्चित करना और श्रमिकों के स्वास्थ्य और कल्याण को बढ़ावा देना है।
दुकानें और वाणिज्यिक प्रतिष्ठान अधिनियम, 1961:
इसका उद्देश्य काम के घंटे, भुगतान, ओवरटाइम, वेतन के साथ एक साप्ताहिक दिन, वेतन के साथ अन्य अवकाश, वार्षिक अवकाश, बच्चों और युवा व्यक्तियों के रोजगार और महिलाओं के रोजगार को विनियमित करना है।
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948: यह न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करता है जो कुशल और अकुशल मजदूरों को भुगतान किया जाना चाहिए।
औद्योगिक विवाद अधिनियम। 1947: यह छंटनी और औद्योगिक उद्यमों को बंद करने और हड़ताल और तालाबंदी जैसी सेवा की शर्तों से संबंधित है।
श्रमिकों के शोषण के लिए एक सक्षम वातावरण बनाया जा रहा है ।
राज्यों द्वारा श्रम कानूनों के तत्काल निलंबन को एक सुधार कहा जा रहा है क्योंकि यह अपने मूल अधिकारों के श्रम को छीन लेगा और मजदूरों के हक को भी समाप्त कर देगा।
निलंबन के लिए, फैक्ट्रियों अधिनियम, 1948 और औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत अधिकांश प्रावधानों का मतलब होगा कि कारखानों में काम करने वालों को सफाई, उचित वेंटिलेशन, पेयजल, कैंटीन और टॉयलेट जैसी बुनियादी कामकाज सुविधाओं से वंचित किया जा सकता है।
ये कदम कर्मचारियों की अधिक शोषण को और आगे बढ़ाएगा। यह कदम मौजूदा औपचारिक श्रमिकों को अनौपचारिक श्रमिकों में बदल देगा क्योंकि उन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलेगी।
इसके अलावा, शिकायत निवारण के लिए किसी भी कार्यकर्ता के पास कोई रास्ता नहीं होगा।
मजदूरी में गिरावट का परिणाम अर्थव्यवस्था में समग्र मांग को और अधिक प्रभावित करेगा, जिससे वसूली प्रक्रिया को नुकसान पहुंचेगा।
जबरन मज़दूरी कराना संविधान का अनुच्छेद 23 “मजबूर श्रम” को प्रतिबंधित करता है। PUDR बनाम भारत संघ (1982) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘ आर्थिक परिस्थितियों उत्पन्न होने वाली किसी भी स्थिति में मजदूर काम छोड़ सकता है ।
इस प्रकार, कई राज्यों द्वारा श्रम कानूनों को निलंबित करने से श्रम की सौदेबाजी की शक्ति कम हो जाती है और इसलिए उन्हें बंधुआ मजदूर (फोर्ब्स लेबर) बदलने में मजबूर होना पड़ेगा।
अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के खिलाफ हैं श्रम कानूनों में ये संशोधन( इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन एम्प्लॉयमेंट एंड डिसेंट वर्क फॉर पीस एंड रेजिलिएन्स सिफारिश, 2017) ।
इस वक्त राज्यों को किसी भी आपदा के बाद पुनर्निर्माण करते समय हाशिए पर रहने वाले समूहों को “स्वतंत्र रूप से रोजगार चुनने” को सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
भारतीय श्रम कानूनों का जटिल होना भी दुर्भाग्यपूर्ण है
। 200 से अधिक राज्य कानून और 50 से अधिक केंद्रीय कानून हैं, और अभी तक देश में “श्रम कानून” की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं है।
कानूनों की बहुलता और जटिलता अनुपालन को कठिन बनाती है और भ्रष्टाचार और श्रमिकों के शोषण की नींव डालती है।
श्रम कानून की लागू होने की बात की जाए तो देखेंगे कि बड़ी संख्या में श्रमिक जो असंगठित क्षेत्र में लगे हुए हैं, वे श्रम नियमों और सामाजिक सुरक्षा से वंचित हैं।
वर्तमान में भारत के लगभग 83% श्रमिक अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं।
इस प्रकार, श्रम कानूनों की वर्तमान रूपरेखा सभी मजदूरों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए कम है।
वर्तमान परिस्थिति में कोविड -19 महामारी के दौरान भारत की केंद्र और राज्य सरकारों को इस बात का पालन करना चाहिए कि दुनिया भर में ज्यादातर सरकारों ने क्या किया है।
सरकार को उद्योग में मजदूरों की भागीदारी करनी चाहिए और मजदूरी का बोझ साझा करना चाहिए और मजदूरों के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने की दिशा में सकल घरेलू उत्पाद(GDP) का एक प्रतिशत आवंटित करना चाहिए।
जो सरकार ने चार श्रम कोड प्रस्तावित किए हैं उस पर काम करना चाहिए :
1- मजदूरी पर श्रम संहिता
2- औद्योगिक संबंधों पर श्रम संहिता
3- व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति पर श्रम संहिता
4-सामाजिक सुरक्षा और कल्याण पर श्रम संहिता
इन्हें जल्द से जल्द संसद द्वारा पारित किया जाना चाहिए।
लचीलेपन और सुरक्षा के अनुकूलतम संयोजन को लागू करने के लिए औपचारिक(फॉर्मल) क्षेत्र पर लागू श्रम कानूनों को संशोधित किया जाना चाहिए।
काम करने की शर्तों के नियमों का अनुपालन अधिक प्रभावी और पारदर्शी करें।
नोट – लेखक संविधान विशेषज्ञ हैं ।