BY- वैरागी
पिछले दो दिनों में अभिनय जगत के आकाश को अपनी कला से प्रकाशित करने वाले दो सितारों के बुझ जाने से आहत भी हूँ और दुखी भी, परंतु उतना ही आश्चर्यचकित भी हूँ।आप सोच रहे होंगे क्यों तो उत्तर है -‘अलविदा इरफान’और ‘अलविदा ऋषि’।
आज इस अलविदा शब्द के अपने धर्म के अनुसार मायने समझाने धर्म के ठेकेदार आगे नहीं आये। मन में जिज्ञासा उठी तो सोचा इतिहास के पन्नो से शायद पता चले कि दिक्कत कहाँ आ रही है। मगर वहाँ भी जितनी तालियां धोनी के छक्कों पे बजी थी उतनी ही तालियां ज़हीर के विकेट लेने पे भी सुनाई दी थी।
भारत को मिसाइल के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने वाले अब्दुल कलाम से भी किसी ने नहीं पूछा कि ये मिसाइल केवल मुस्लिम वर्ग की रक्षा करेगी या अन्य भारतीयों के संकट के समय भी यह उपयोग की जा सकेगी।
50,000 करोड़ यानी अपनी सम्पति का 34℅ दान में देने वाले अजीज प्रेमजी ने भी यह नहीं कहा कि इस पैसे को केवल मुस्लिम वर्ग के लिए प्रयोग में लाया जाए। जब इन्होंने किसी से धर्म नहीं पूछा तो फिर सब्जी बेचने वाले से धर्मसूचक नाम पूछकर दुर्व्यहार करना और किसी धर्म विशेष के व्यक्तियों से समान न खरीदने की अपील निश्चय ही मन को आहत करती है।
उमर खालिद को तो जानते होंगे आप, तथाकथित टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य। परंतु क्या आप लक्ष्मण राव उर्फ गणपति को जानते हैं, नही ! तनिक जोर डालिये दिमाग पर। अभी भी नहीं याद आया। कैसे जानेंगे, यह केवल NIA द्वारा जारी मोस्ट वांटेड की लिस्ट में कई अन्य आतंकवादियो से ऊपर दूसरे नंबर पर है।
अगर किसी धर्म विशेष का होता तो जरूर किसी न किसी चैनल की हेडलाइंस पे तो मिल ही जाता। शायद इन्हीं घटनओं ने UNCIRF 2020 की रिपोर्ट में भारत को सीरिया, पाकिस्तान, और नार्थ कोरिया जैसे देशो की श्रेणी ( countries for perticular concern) में ला खड़ा किया है।
परन्तु समानता के साथ-साथ धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को लिखित रूप से आत्मसात करने वाले संविधान के होते हुए देश में ऐसी घटनाएं कैसे घटित हो रही हैं और अगर हो रही हैं तो विरोध का स्वर सुनाई क्यों नहीं दे रहा। कारण है- धर्म की पट्टी आंखों पे बांधकर तथ्यों का बिना विश्लेषण किये केवल उसकी वेशभूषा से उसके चरित्र को गढ़ लेना।
वसुधैव कुटुम्बकम के देश में हमने धर्म के प्रति विश्वास को तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के हाथों की कठपुतली बना दिया है जो निजहित के लिए देश को गृहयुद्ध की खाई में धकेल रहे हैं तो आखिर इसका समाधान क्या है?

तस्वीर में फर्क सिर्फ इनकी सोच का है, धर्म का नहीं। धर्म की कसौटी के आधार पर किसी से दुर्व्यवहार वैसा ही है जैसे की कौए और कोयल में केवल रंग के चलते भेद न कर पाना। धार्मिक मूल्यांकन के बजाय चारित्रिक मूल्यांकन करने पर ही हम यह जानने में सक्षम होंगे की वह अजमल कसाब है या अब्दुल कलाम।