मोदी की काल्पनिक आत्मनिर्भरता मजदूरों की आत्मनिर्भरता से इतर क्यों?

BYवैरागी

गांधी जी कहते थे”असली भारत गांव में बसता है”, मगर उस भारत का एक बडा तबका राष्ट्रनिर्माण के साथ अपने भविष्य को सवारने के लिए शहरों में प्रवास करता है।

परंतु वैश्विक महामारी के बचाव की जद्दोजहद में सरकार ये भूल गई कि देश की अर्थव्यवस्था का रुका पहिया सीधे इस ‘प्रवासी भारत’ की जिंदगी से जुड़ा हुआ है।

सरकार और किस्मत पर भरोसा करके दिया जलाने और अन्न से अपना सम्पर्क तोड़ चुकी थाली बजाने के महीने बाद भी जब सरकार ने इनकी सुध नही ली तो 20 लाख करोड़ के महत्व की 2 रोटियां लेके ये ‘असली भारत’ की ओर पलायन कर चले।

देशबन्दी ने विवशतापूर्वक ही सही, रेल की इंजिनों को भी बन्द कर रखा है। लेकिन ‘आत्मनिर्भरता’ को आत्मसात किये हुए मजदूर सरकार के किसी समकक्ष अभियान की नकल कर “वन से भारत” अभियान के तहत, गांव से खुद की सोशल डिस्टेंसिंग कम करने का प्रयास कर रहे हैं।

सायंकाल की कैरियर पर अपनी जिंदगी और परिवार का बोझ लिए श्रमिक इस उम्मीद से पहियों को धकेलने का प्रयास कर रहा है कि जिंदा रहे तो गांव में मजूरी कर के पेट पाल लेंगे और अगर जिंदगी के पहिये सायंकाल के पहियों की तरह थम गए तो सरकार ने तो उनकी जान की कीमत 5 लाख तक तय कर ही दी है, कम से कम बाल-बच्चे तो भूखे न मरेंगें।

जब कोई विशेष विमान मृतक श्रमिक की जांच की कोरमपूर्ती के लिए आएगा तो शायद दया दिखाकर परिवार को गांव तक छोड़ जाए। कृषि(44%) और उद्योगों(25%) को मिलाकर लगभग 70% क्षेत्र में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष योगदान और 5 ट्रिलियन की इकॉनमी के सपने को पूरा करने वाले भारत के भविष्य आज सड़कों और रेल की समांतर पटरियों पर अपने सामान और सम्मान में सामंजस्य बनाने हेतु संघर्ष कर रहे हैं।

परंतु सरकार द्वारा 20 लाख करोड़ की राशि व श्रमिक ट्रेनों के संचालन की घोषणा के बाद भी समस्या का समाधान क्यों नहीं हुआ? कारण है-क्रियान्वयन।

8 करोड़ प्रवासी मजदूरों को अनाज देने के लिए प्रतिबद्ध सरकार को पहले ये सुनिश्चित करना चाहिए कि राशनकार्ड हितग्राहियों का राशन, कोटेदारों के भंडारगृह से पाशमुक्त हुआ या नहीं। थालियां तब भी बजी थीं जब देश के प्रधान ने गुहार लगाई थी, थालियां तब भी बजी हैं जब तड़पते मासूमों को देख घर के किसी बेबस प्रधान ने गुहार लगाई। फर्क बस इतना था एक की गूंज पूरे विश्व में सुनाई दी और दूसरे की राशन के ठेकेदारों के पास भी नहीं।

भोजपुरी में एक कहावत कहल जाला कि”अपतकाल में लोन-रोटी (नमक-रोटी) बड़ा मुश्किल से मिलेला”। अतः सरकार द्वारा इस कहावत की गंभीरता को देखते हुए संज्ञान में लिया गया और आर्थिक पैकेज का बड़ा हिस्सा ‘लोन’ प्रदान करने हेतु आवंटित किया गया। बाकी बची राशि से रोटी की व्यवस्था का आश्वासन भी दिया गया है।

सूरत के मजदूर और मजदूरों की सूरत के हिस्से श्रमिक ट्रेनों के बाद भी लाचारी ही हाथ आई। जिनको रेल मंत्रालय के लौह पुष्पक विमान की सवारी का सौभाग्य मिला उनसे रेलगाड़ी में बैठने के तो नहीं लेकिन उतरने के पैसे जरूर लिए गए जबकि ट्रेन टिकट के किराए में केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा 85 और 15 का भुगतान समीकरण बैठाया गया था।

शायद इसी समीकरण की गणित के अनुसार 30 घंटे की दूरी का समय 65 घंटे के अनुपात के बराबर होता है तभी तो यह श्रमिक ट्रेन ‘स्पेशल’ बन जाती है। तो आखिर समाधान क्या है?

समाधान है-कड़े फैसलों के साथ-साथ उनके क्रियान्वयन पर भी निगरानी रखना ताकि वो धरातल पर आमजन को भी परिलक्षित हो सके। इससे उन अपंजीकृत उपेक्षित मेहनतकश के बैंक एकाउंट भी हरे हो जाएंगे जो अपनी अशिक्षा और देश की बंदी के दंश के साथ-साथ सरकार की अव्यवस्था का शिकार हुए हैं।

 

 

About Admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *