द कश्मीर फाइल्स रिव्यु: कश्मीर से कश्मीरी पंडितों का ही पलायन हुआ बाकी हिंदुओं का नहीं, आखिर क्यों?

BY- PRIYANKA PRIYANKAR

सबसे पहले मैं बात करना चाहूंगी कि फ़िल्म देखनी चाहिए कि नहीं तो  मेरा मानना है कि बिल्कुल फ़िल्म देखिए, और खुद से सवाल और फ़िल्म इंडस्ट्री


से मांग कीजिए कि, इस तरह की जितनी भी घटनाएं हुई है क्या उस पर भी इसी तरह फोकस्ड होकर फ़िल्म बनाने की हिमाक़त विवेक अग्निहोत्री या अन्य बालीवुड डायरेक्टर कर सकते हैं कि नहीं..?

जिस तरह से द कश्मीर फाइल्स देखकर आपके आंखों से आँसू और दर्द छलक रहे हैं क्या उसी तरह से भारत में अन्य जाति, धर्म, समुदाय, दलित, शोषितों पर हो रहे हज़ारों साल से हो रहे मनुवादी अत्याचार, मुजफ्फरनगर दंगा, गुजरात दंगा, भागलपुर जैसे दंगे, मुरादाबाद ईदगाह कांड, बस्तर आदिवासी घटना और न जाने ऐसी कितनी ही घटनाएं हैं जिस पर अगर फ़िल्म बनती है तो क्या आपके आँखों के आँसू सुखेंगे?
क्या आपको उस समय भी चुल्लूभर पानी में डूबकर मरने का मन करेगा या नहीं..?

फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर विवेक अग्निहोत्री चर्चा में है, इस फिल्म में अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, दर्शन कुमार और अतुल श्रीवास्तव जैसे दिग्गज अभिनेता अहम किरदारों में हैं।

शुक्रवार को सिनेमाहॉल्स में रिलीज हुई विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म की कहानी की बात करें तो फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ 90 के दशक में कश्मीरी हिन्दू और कश्मीरी पंडितों की हत्या, बलात्कार और पलायन पर आधारित है।

फ़िल्म की शुरूआत होती है कृष्णा (दर्शन कुमार) दिल्ली में पढ़ने वाले लड़के से जो अपने दादाजी पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए श्रीनगर जाता है, उसे कश्मीर के अतीत की कहानी बस वही पता है जो वो अपने दादा जी सुना होता है, इसलिए वह कश्मीर जाकर अपने परिवार से जुड़ी सच्चाई जानने में लग जाता है, जहाँ उसकी मुलाकात उसके दादाजी के चार दोस्तों से होती है, कृष्णा उनसे कश्मीरी पंडितों के साथ हुई घटना के बारे में जानता है कि कैसे कश्मीर की गलियों में आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों को ढूंढ-ढूंढकर मारा था।

कश्‍मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार, साल 1990 में घाटी के भीतर 75,343 कश्मीरी पंडित परिवार थे, लेकिन साल 1990 और 1992 के बीच आतंकियों के डर से 70 हजार से ज्‍यादा परिवारों ने घाटी को छोड़ दिया, साल 1990 से 2011 के बीच आतंकियों ने 399 कश्‍मीरी पंडितों की हत्‍या की है, पिछले 30 सालों के दौरान घाटी में बमुश्किल 800 हिंदू परिवार ही बचे हैं, साल 1941 में कश्‍मीरी हिंदुओं का आबादी में हिस्‍सा 15 फीसदी था, लेकिन साल 1991 तक उनकी हिस्‍सेदारी सिर्फ 0.1 फीसदी ही रह गई, अपनी मातृभूमि और कर्मभूमि से दूर होने वाले कश्मीरी पंडितों के इस दर्द को पर्दे पर दर्शाने में विवेक अग्निहोत्री द्वारा की गई कोशिश क़ाबिले तारीफ है।

एक्टिंग की बात करें तो अनुपम खेर और मिथुन चक्रवर्ती ने अच्छा काम किया है। इनके अलावा फिल्म में दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी, प्रकाश बेलावड़ी, पुनीत इस्सर, अतुल श्रीवास्तव, चिन्मय मांडलेकर, भाषा सुंबली ये सभी भी अपने किरदारों के साथ न्याय करते हैं।

डायरेक्शन देखा जाए तो विवेक अग्निहोत्री द्वारा फिल्म में कश्मीरी पंडितों के दर्दनाक सफर को दिखाया गया है, जिन्हें रातों-रात अपने ही घर से निकाल दिया जाता है और उन्हें रिफ्यूजी टैंट में रहने को मजबूर किया जाता है कितनों के जान भी जाती है जैसा कि अक्सर इस तरह की घटना से जुड़ी फिल्मों में देखने को मिलता है।

फिल्म में आतंक के चेहरे को दिखाया गया है, जिससे कह सकते हैं कि फिल्म मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि लोगों को जागरूक करने के लिए बनाई गई है।

विवेक अग्निहोत्री की इस फिल्म को राजनीतिक झुकाव से अलग होकर देंखे, तो इस फिल्म में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों को देखना, मानवता और न्याय व्यवस्था को घुटने टेकते देखना दिल दहलाने जैसा है,
2 घंटे 40 मिनट की फिल्म में धारा 370 से लेकर ऐतिहासिक पौराणिक कथाओं से जुड़े तथ्यों पर भी ध्यान दिया गया है।

अब बात करते हैं कि राजनीतिक झुकाव की तो, जब कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ उस समय केंद्र में अटल-आडवाणी के सहयोग से बनी सरकार सत्ता में थी, हालांकि इस घटना के बाद भी दोनों हिंदूवादी सांसदों ने इस्तीफा नहीं दिया और न ही संसद में पंडितों के मुद्दों पर कोई भी बात हुई, संयोग देखा जाए तो उस समय जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल भी बीजेपी सरकार का था, क्योंकि इस सरकार के लिए ये केवल राजनीति का विषय था और आगे भी रहने भी रहने वाला है। अब ये एक संयोग मात्र था या प्रयोग अभी तक कुछ साबित नहीं हो पाया है।

इस फ़िल्म और कहानी को पढ़ने जानने के बाद एक बात आश्चर्य चकित करती है कि भारत में इतनी हिसंक घटना के बाद भी हिंदुओं का नामी संगठन आरएसएस और बाकी हिन्दू संगठन कहाँ थे?

कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को ही क्यों निकाला गया, केवल उन्हीं का क्यों नरसंहार किया गया,, हिन्दुओं का क्यों नहीं, अगर इसे समझने कि कोशिश करते हैं तो यही लगता है कि भारत में हिंदू ख़तरे में क्यों है, भारतीय पंडित क्यों नहीं?

सवाल यह उठता है कि कश्मीर की हिन्दू धर्म व्यवस्था में सिर्फ़ कश्मीरी पंडित ही थे,,. अन्य पायदान के गुलाम नहीं.., और सिर्फ उन्हीं का शोषण, कत्लेआम, निष्कासन हुआ, अन्य लोगों का नहीं आखिर क्यों? जबकि बिना वर्ण और जाति व्यवस्था के तो हिन्दू ब्राह्मण धर्म का कोई अस्तित्व ही समझ नहीं आता है।

यह भी पढ़ें- यूपी में कब सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायक बनकर पहुंचे विधानसभा?

यह भी पढ़ें- यूपी चुनाव 2022: बसपा की हार के क्या कारण रहे और क्या बदलाव करके खड़ा किया जाए?

Follow Us On Facebook Click Here

Visit Our Youtube Channel Click Here

 

About Admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *