BY- FIRE TIMES TEAM
4 मई का दिन भारतीय इतिहास की दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है। इस दिन मैसूर के शेर के नाम से जाना जाने वाला एक योद्धा टीपू सुल्तान वीरगति को प्राप्त हुआ था। टीपू सुल्तान का जन्म नवंबर 1750 में हैदर अली और फातिमा के घर हुआ था।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध 1780 से 1784 के बीच लड़ा गया। जुलाई 1780 में हैदर अली ने कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया जहां से युद्ध का प्रारंभ होता है। हैदर अली ने अंग्रेज जनरल बेली को कर्नाटक के मैदानों में बुरी तरह परास्त किया और अक्टूबर1780 में अर्काट पर अधिकार कर लिया। हार से भयभीत अंग्रेज गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने कूटनीतिक चाल चली।
उसने निजाम को गुंटूर देकर हैदर अली से अलग कर दिया और सिंधिया-भोंसले को भी अपने में मिला लिया। 1780 में नए अंग्रेज जनरल आयरकूट ने पोर्टानोवा, पोलिलूर, शोलिंगलूर में अकेले पड़े हैदर अली को कई बार परास्त किया। परंतु हैदर अली ने एक बार फिर उत्साह दिखाया और और सितम्बर 1782 में आयरकूट को हरा दिया।
इसके बाद 7 दिसंबर 1782 को हैदर अली की मृत्यु हो गई लेकिन फिर भी उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने युद्ध को जारी रखा। इतने लंबे युद्ध के बाद अब न तो अंग्रेज युद्ध जारी रख पाने की स्थिति में थे और न ही टीपू अंग्रेजों को करारी मात देने की स्थिति में था।
ऐसे में मार्च 1784 ई. को दोनों पक्षों ने मंगलौर की संधि कर ली जिसमें यह तय हुआ एक-दूसरे के भू-भागों को वापस कर दिया जाएगा।
इसके बाद जल्द ही तीसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध 1790 में शुरू हो गया जो अंग्रेजों की छलपूर्ण नीति का परिणाम था। इस युद्ध में भी अंग्रेजों ने टीपू के खिलाफ मराठों और निजाम से संधि कर ली।
टीपू ने बहादुरी से युद्ध किया लेकिन अंग्रेेेजों की सामरिक स्थिति मजबूत होंंने के कारण उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा और श्रीरंगपट्टनम की संधि करनी पड़ी। अपने राज्य का आधा हिस्सा अंग्रेजों, मराठों एवं निजाम को देना पड़ा। अंग्रेजों को युद्ध के हर्जाने के रूप में तीन करोड़ रुपये दिए और अपने दो बेटों को बंधक के रूप में भी रखना पड़ा।
श्रीरंगपट्टनम जैसी अपमान जनक संधि टीपू जैसा स्वाभिमानी शासक अधिक समय तक बर्दास्त नहीं कर सकता था। भारतीय राज्यों से उसे किसी प्रकार के सहयोग की आशा नहीं थी इसलिए उसने अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करने की दिशा में प्रयास किया।
टीपू ने अरब, कुस्तुन्तुनिया, अफगानिस्तान, मॉरीशस, फ्रांस के साथ-साथ नेपोलियन तक को पत्र लिखा। टीपू ने अपनी सेना को फ्रांसीसी पद्धति पर प्रशिक्षित किया। और फिर आंग्ल-मैसूर का चौथा युद्ध मार्च 1799 से मई 1799 के बीच लड़ा गया।
इस युद्ध में एक बार फिर से अंग्रेजों ने मराठों और निजाम से संधि कर ली। अंग्रेजों ने लालच दिया कि युद्ध में प्राप्त लाभ को तीनों में बराबर-बराबर बांटा जाएगा।
यदि इस युद्ध में मराठों और निजाम ने अंग्रेजों को साथ न दिया होता तो टीपू की जीत सुनिश्चित कही जा सकती है। इस बार उसकी तैयारी पहले से कहीं बेहतर लेकिन अंग्रेजी सेना के साथ-साथ मराठों और निजाम को परास्त कर पाने में सक्षम नहीं था।
आखिरकार दो घमासान युद्धों में टीपू सुल्तान पराजित हुआ और उसने श्रीरंगपट्टनम के किले में शरण ले ली। अंग्रेज करीब 15 दिन तक इस किले पर घेरा डाले रहे और 4 मई 1799 को कब्जा कर लिया। टीपू सुल्तान बहादुरी से दुर्ग की रक्षा करता हुआ मारा गया।