नंदीग्राम : बाप-बेटे, मां और कब्रों से निकलते अस्थिपंजर

 BY- बादल सरोज 
  • कम्युनिस्ट भविष्यवक्ता नहीं होते, किन्तु वे भविष्यदृष्टा पक्के-से होते हैं।

नन्दीग्राम और सिंगूर को लेकर खड़े किये गए झूठ के तूमार के चलते 2011 में चुनाव हारने के बाद बुद्धदेब भट्टाचार्य ने कहा था कि दस साल में सारा सच सामने आ जाएगा और 28 मार्च को नन्दीग्राम की एक चुनावी सभा में ममता बनर्जी ने खुद अपने श्रीमुख से सच उगल ही दिया।

ममता ने कहा कि “14 मार्च 2007 को पुलिस यूनिफार्म और हवाई चप्पल पहने जिन कथित पुलिस वालों ने गोलियां चलाई थी वे बाप-बेटे शुभेन्दु अधिकारी और शिशिर अधिकारी के भेजे हुए लोग थे।”

ठीक यही बात थी, जिसे बंगाल की तब की बुद्धदेव की सरकार, सीपीएम और वाममोर्चा लगातार कहते रहे हैं। अंतर यह कि इस बार यह बात, तब की अपनी पार्टी के अपने सबसे भरोसेमंद बाप-बेटे की साजिश की जानकारी खुद साजिश की माँ कह रही हैं।

14 ग्रामीणों की मौत वाले इस गोलीकाण्ड के बाद जब्ती और पोस्टमॉर्टेम में जो गोलियां निकली थीं, उनके बारे में भी तभी रिपोर्ट आ गयी थी कि वे पुलिस द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली गोलियाँ नही थीं। सीबीआई तक ने जाँच में वाममोर्चा सरकार को निर्दोष पाया था। फिर अपराधी कौन था? यह गोलाबारूद किसका था?

साजिश की माँ के मुताबिक यही बाप-बेटे इस साजिश की पटकथा के लेखक, निर्देशक, सूत्रधार थे। यही थे, जो माओवादियों को हथियार पहुंचाते थे। यही थे, जो कभी इन पर, तो कभी उन पर गोलियाँ चलवाकर वामफ्रंट की सरकार के खिलाफ माहौल बनाते थे।

जिसके बहाने ममता कलकत्ता में भूख हड़ताल करती थी और जिन्हें सिरहाना देने कभी आडवाणी तो कभी राजनाथ – कभी नागनाथ तो कभी साँप नाथ तो अक्सर नेवला नाथ भी पहुँच जाते थे। पहुंच तो और भी जाते थे – मगर उनके बारे में एकदम आखिर में।

कम्युनिस्टों के खिलाफ़ इस तरह की साजिशें उतनी ही पुरानी हैं, जितने पुराने कम्युनिस्ट हैं। बेहतरी की ओर समाज के परिवर्तन के लिए और शासकों के शोषण के विरुद्ध लड़ाई लड़ने वाले उनके वैचारिक और संग्रामी पूर्वजों के साथ भी इसी तरह के छल-कपट सत्ताधीशों ने किए हैं। ऐसी अनगिनत सत्यकथाओं से भरा पड़ा है मानव सभ्यता के वर्गसंघर्ष का इतिहास।

इसी बंगाल में 1969 में युक्त फ्रंट की सरकार के समय लोहियावादी राजनारायण और जनसंघ ने मिलकर रबीन्द्र सरोवर “काण्ड” के नाम पर षड़यंत्री मुहिम छेड़ी थी। संसोपाई राजनारायण ट्रक भरकर कपडे लेकर निकल पड़े थे।

ठीक आम चुनावों के बीच 1971 की फरवरी में ऑल इंडिया फारवर्ड ब्लॉक के राष्ट्रीय सचिव हेमंत बसु की कलकत्ता में दिन दहाड़े हत्या कर उसका आरोप सीपीएम पर मढ़ा गया – ताकि वाम फ्रंट की एकता बिखेरी जा सके। माओवादियों के पूर्व संस्करण नक्सलवादियों का इस्तेमाल कर सिद्दार्थ शंकर राय की सरकार ने सीपीएम नेतृत्व की हत्याओं की श्रृंखला छेड़ी थी – अब यह दस्तावेजी इतिहास है । सिंगूर और नन्दीग्राम इन्हीं लोगों की साजिशों का आधुनिक संस्करण था।

इसका नतीजा क्या सिर्फ सीपीएम ने ही भुगता? नहीं, पूरे बंगाल ने भोगा – इस कदर भोगा कि वर्तमान ही नहीं, इतिहास का हासिल भी दांव पर लग गया। मजदूर वर्ग के एक मजबूत दुर्ग, एक चमचमाते लाइट हाउस के कमजोर होने का असर देश के जनतांत्रिक आंदोलन पर भी पड़ा। अन्धेरा पसरा, तो साँप-बिच्छू-कबरबिज्जू का *खेला होबे* होने लगा।

ममता की सार्वजनिक आत्म-अपराध-स्वीकारोक्ति के बाद 29 मार्च के अपने संदेश और वक्तव्य में *बुध्ददेब भट्टाचार्य* ने इसे सूत्रबद्ध करते हुए ठीक ही कहा है कि : “अपने साजिशी नाटक से बंगाल को इस दशा में पहुंचाने वाले कुटिल षडयंत्रकारी आज दो हिस्सों में टूट कर एक दूसरे पर कीचड़ फेंक रहे हैं।

मगर बंगाल को क्या मिला? नंदीग्राम और सिंगूर में मरघट की शांति है : श्मशान का सन्नाटा है। पिछले 10 वर्षों में एक भी उद्योग नही लगा। बंगाल के युवक-युवतियों की मेधा, योग्यता और कार्यकुशलता बेकार बैठी है या शर्मनाक दाम पर काम करते हुए मार-मारी घूम रही है।

जनता के जिस आपसी सौहार्द्र पर बंगाल गर्व करता था, आज वह ज़ख़्मी और लहूलुहान पड़ी है। ममता की गोदी में बैठ साम्प्रदायिक राजनीति के विषधर उस बंगाल में पहुँच गये हैं, जहाँ वे नगरपालिका तक का चुनाव नही जीतते थे। इस घृणित राजनीति के सामाजिक असर भी हुए : महिलाओं का उत्पीड़न उप्र-मप्र-जैसे स्त्रियों के लिए नरक जैसे प्रदेशों से होड़ लेने लगा। नीचे तक वास्तविक लोकतंत्रीकरण का वाम का अद्भुत काम उलट दिया गया है।”

बुद्धदेव ने ठीक कहा है कि “यह इस सबको उलट देने का समय है। युवा ही इस विपदा को रोकेंगे। रोजगार बड़ा सवाल है, बंगाल के पुराने गौरव को लौटाने की जिद का समय है । संयुक्त मोर्चा इसी सबका वाहक है।” यकीनन बंगाल की जनता इस बार ऐसा ही करेगी। उन्होंने दोहराया है कि कृषि को बुनियाद और औद्योगीकरण को भविष्य मानना ही बंगाल की आर्थिक राजनीतिक दिशा हो सकती है।

आखिर में यह कि नंदीग्राम और सिंगूर की साजिश के पर्दाफाश के बाद आत्मावलोकन और पुनरावलोकन का जिम्मा उन बुद्धिजीवियों और कथित सिविल सोसायटी की सेलेब्रिटीज का भी है, जिन्होंने मेहनतकश जनता की सरकार के खिलाफ प्रायोजित हो-हल्ले में अपराधियों के सुर में अपना सुर मिलाया था, अब प्रमाणित हुए षड्यंत्रकारियों के साथ फोटू खिंचवाया था। मीडिया में जगह पाने के लिये सीपीएम, वाम और बंगाल सरकार को बुरी तरह गरियाया था। बुध्ददेब भट्टाचार्य को सद्दाम हुसैन तक बताया था।

‘कौआ कान ले गया’ सुनकर बिना अपना कान छूकर देखे कौए के पीछे भागने वाले इन विद्वतजनों/जनियो को साजिशों के बाप, बेटे, माँ के इन सत्योदघाटनों के बाद खुद को आईने में निहारना चाहिये। देश, बंगाल, नन्दीग्राम, सिंगूर की जनता से माफी मांगनी चाहिये।

लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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