हर बीते दिन के साथ भाजपा सरकार का झूठा और किसान विरोधी चेहरा बेनक़ाब ही हुआ है

आलेख : विक्रम सिंह

हमारे देश में एक बहुत ही प्रचलित कहावत है ‘चोर चोरी से जाए पर हेरा फेरी से नहीं’। ऐसा ही कुछ हाल केंद्र में भाजपा सरकार का है। हालाँकि सरकार की कारगुज़ारी इस कहावत से कहीं गहरी, सोची-समझी और योजनाबद्ध है, केवल आदतन नहीं है।

कॉर्पोरेट और पूंजीपतियों के लिए नीतियां बनाना सरकार की महज आदत नहीं, बल्कि मुख्य लक्ष्य है। भई सरकार है ही उनकी और उनके लिए। खैर हम बात कर रहे थे हेरा फेरी की। 15 मार्च को भारतीय खाद्य निगम के कुरुक्षेत्र संभाग ने किसानों से फसल खरीदने वाली सभी सरकारी एजेंसियों को एक पत्र जारी कर निर्देश दिए कि खरीदी गई पूरी की पूरी फसल सीधे अदानी के साइलो में पहुँचानी होगी।

इस पत्र में यह निर्देश वर्ष 2022-23 के लिए गेहूं खरीद और भंडारण की योजना के बारे में विस्तार से बताते हुए दिए गए थे। क्या मतलब है निर्देशों का? क्यों और किसने चुना अदानी के साइलो को? यह तो किसान संगठनों के दावे को ही सही साबित कर रहे हैं कि अदानी के साइलो बने ही सरकारी मंडियों और भंडारण की व्यवस्था का स्थान लेने के लिए हैं।

हालाँकि चौतरफ़ा प्रतिरोध के चलते भारतीय खाद्य निगम को 20 मार्च को ही इस निर्देश को कई तरह के सतही स्पष्टीकरण देते हुए वापिस लेना पड़ा। एक कुतर्क तो यह भी दिया गया कि (अदानी के) साइलो भी मंडियों की तरह ही हैं और यहाँ भी आढ़ती किसानो से खरीद करेंगे। परन्तु FCI ने यह नहीं बताया कि अदानी के साइलो ही क्यों? किसने हक़ दिया FCI को यह निर्णय लेने का? क्या अदानी समूह का ढांचा सरकारी ढांचे का स्थान लेने वाला है?

देश के किसानों की किसानी और ज़मीन पर सरकार की मदद से कॉर्पोरेट चोरी की एक बड़ी कोशिश को, देश के किसानों ने मज़दूरों और खेत मज़दूरों के साथ साझे ऐतिहासिक आंदोलन से असफल कर दिया। परन्तु मोदी सरकार अभी भी पूरा प्रयास कर रही है कि हेरा फेरी के जरिए कॉर्पोरेट हितों को फायदा पहुँचाया जाए।

गौरतलब है कि भाजपा सरकार को किसान आंदोलन ने मज़बूर किया तीनों कृषि कानून वापिस लेने के लिए, परन्तु नरेंद्र मोदी ने इनकी वापसी की घोषणा करते हुए भी इनके फायदे ही गिनाए थे। संसद में भी तीनों कृषि कानून को रिपील करने के लिए जो विधेयक पास किया गया, उसके मज़मून के अस्सी फीसदी से ज्यादा हिस्से में कानूनों के कसीदे ही नहीं पढ़े गए थे, बल्कि यह भी स्थापित करने की कोशिश की गई थी कि ज्यादातर किसानों की बेहतरी के लिए थे।

यह कानून केवल और केवल कुछ किसानों के विरोध के चलते वापिस लिया जा रहा है। पूरी बेशर्मी के साथ ऐसा सन्देश दिया गया कि तीनो कृषि कानून वापिस लेकर मोदी आंदोलनकारी किसानों पर एहसान कर रहें हैं, क्योंकि आज़ादी के अमृत उत्सव में वह सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं।

इस सबके बीच में यह बात तो पक्की है (किसानो ने भी यही चिंता जाहिर की थी) कि मोदी सरकार की मंशा पर कभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता। अभी तो सरकार ने कृषि कानून वापिस ले लिए है, परन्तु पूंजपतियों के प्रति शासक वर्ग की प्रतिबद्धता के कारण वापिस लिए गए तीनों कृषि कानूनों को किसी न किसी तरीके से पुन: लाने का का प्रयास करेंगे ही। इसी के चलते इस पूरे समय सरकार वातावरण निर्माण का प्रयास करती रही है।

असल बात तो यह है कि शुरू से ही तमाम प्रचार के बावजूद भाजपा सरकार किसानों द्वारा चिन्हित सभी आशंकाओं को झुठलाने में असफल रही है। उल्टा हर बीते दिन के साथ भाजपा सरकार का झूठा और किसान विरोधी चेहरा बेनक़ाब ही हुआ है।

यह बात और ज्यादा साफ़ हो गई, जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कृषि कानूनों पर गठित कमिटी की रिपोर्ट हाल में सार्वजनिक की गई। किसानों ने बहुत पहले ही कह दिया था कि इस कमेटी पर किसानों को विश्वास नहीं है और इस कमेटी के सदस्य मूलत: कृषि के कॉर्पोरेट विकास के ही हिमायती हैं।

इस रिपोर्ट को सरसरी तौर पर देखने से ही पता चल जाता है कि कमेटी का मक़सद कृषि कानूनों पर हो रहे आंदोलन का हल निकलना नहीं था, बल्कि इनके पक्ष में किसानों के समर्थन की बात को स्थापित करना ही था। ऊपर से इस समर्थन पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय का ठप्पा लग जाता। यह रिपोर्ट केवल कृषि कानूनों की वकालत करने तक नहीं रूकती, बल्कि अगले चरण के तथाकथित सुधारों की भी सिफ़ारिश करती है।

सार रूप में इस रिपोर्ट में सीधे-सीधे कृषि कानूनों की हिफ़ाज़त की गई है। अन्य सिफारिशों और सुझावों के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद कम करने की सिफारिश की गई है और सार्वजानिक वितरण प्रणाली में सस्ते दामों पर अनाज वितरण की व्यवस्था को ख़त्म कर इसके बदले लाभार्थियों के बैंक खातों में सीधे पैसे डालने (DBT) की प्रणाली का भी सुझाव दिया गया है।

गौरतलब है कि कमेटी से अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग इन पहलुओं पर खर्च करने के लिए नहीं कहा गया था। परन्तु कमेटी के सदस्यों और उनके मार्गदर्शकों ने इस मौके का उपयोग अगले चरण के बदलावों के लिए भी ज़मीन तैयार करने के लिए किया। हालांकि यह तो स्पष्ट है कि अगर तीनों कृषि कानून लागू हो जाते, तो यह बदलाव तो होने ही थे। इसलिए सरकार, उनके कॉर्पोरेट मित्रों और पूँजी दरबारी बुद्धिजीवियों की हताशा और गुस्सा समझा जा सकता है।

दूसरा पहलू यह है कि कैसे नवउदारवादी नीतियों के समर्थक अभी भी अपने मंसूबों को लागू करने के लिए प्रयासरत हैं, रिपोर्ट को जारी करते हुए इस कमेटी के सदस्य अनिल घनवट के कथन से ही पता चलता है। रिपोर्ट को सार्वजनिक करते हुए उन्होंने कहा कि “मैं आज यह रिपोर्ट जारी कर रहा हूं। तीन कानूनों को निरस्त कर दिया गया है।

तो अब (इस रिपोर्ट की) कोई प्रासंगिकता नहीं है।” अरे साहब जब आप खुद कह रहें है कि संसद में तीनो कानून वापिस होने के बाद इस रिपोर्ट की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है, तो फिर आपको क्या जरुरत थी इसको सार्वजानिक करने की। शायद इसी पहलू को ध्यान में रखकर घनवट जी के बार-बार मांग करने पर भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय रिपोर्ट को सार्वजानिक करने पर ज्यादा इच्छुक नहीं था।

हमें तो लगता है कि इस रिपोर्ट को एक एजेंडे के तहत जारी किया गया है और यह तो कोई भी तार्किक इंसान समझ सकता है कि यह एजेंडा केवल अनिल घनवट जी का नहीं है, बल्कि किसान आंदोलन से हारने वाले पूरे दल का है।

रिपोर्ट में सबसे महत्वपूर्ण खोज यह है, “इन कृषि कानूनों को रद्द करना या लंबे समय तक निलंबन कृषि कानूनों का समर्थन करने वाली ‘साइलेंट’ बहुमत के लिए अनुचित होगा।” यह ही है वह बिंदु, जिस पर पूरे का पूरा प्रचार केंद्रित है। किसान आंदोलन के दौरान भी और किसान आंदोलन की जीत के बाद भी कि किसानो का बहुमत कानूनों के पक्ष में है और आंदोलन तो केवल कुछ किसान ही कर रहे हैं।

अब तो यह इतिहास है कि इस पूरे प्रचार का देश के किसानो ने क्या हश्र किया। जितना यह प्रचार तेज हुआ, उतनी ही बड़ी संख्या में किसान आंदोलन में शामिल होते गए।

दरअसल किसानो की भारी संख्या ने ही इस प्रचार को हरा दिया। परन्तु न तो प्रधानमंत्री इसको मानते हैं और न ही उनका प्रचार तंत्र। अब धूर्तता और झूठ तो इनके पूरे तंत्र में ही भरा पड़ा है। ऐसा लगता है कि कमेटी का मक़सद किसानों की समस्या और आपत्तियां सुनना नहीं था, बल्कि अपनी ही हाइपोथिसिस को प्रमाणित करना था। इसलिए यह रिपोर्ट विरोधाभासों से भरी पड़ी है।

मसलन रिपोर्ट कहती है कि किसानों में गहन प्रचार की आवश्यकता है, ताकि उनमें फैली भ्रांतियों को दूर किया जा सके : जैसे MSP ख़त्म नहीं होगा, PDS पर कोई असर नहीं होगा, आदि। परन्तु जैसा ऊपर जिक्र किया गया है कि यह कमेटी MSP पर सरकारी खरीद को कम करने और सार्वजानिक वितरण प्रणाली को कमजोर करने की भी सिफारिश करती है।

किसान आंदोलन के नेतृत्व ने पहले ही यह बता दिया था कि इस कमेटी के सदस्य क्या रिपोर्ट देंगे! हालाँकि इस रिपोर्ट के तथ्य ही ‘साइलेंट बहुमत’ की पोल खोल देते हैं। घनवट जी ने बताया कि इस कमेटी ने कुल 266 संगठनों से सम्पर्क किया।

उनके अनुसार इस फेहरिस्त में आंदोलन में हिस्सा लेने वाले संगठन भी शामिल थे। लेकिन मात्र 73 संगठनों ने ही कमेटी से बात की। इनमें से 61 संगठनों ने कृषि कानूनों का समर्थन किया।

हालाँकि रिपोर्ट आगे आकर्षक चार्ट और आकृतियों के साथ दावा किया गया है कि इन 61 संगठनों ने 3.3 करोड़ से अधिक किसानों का प्रतिनिधित्व करते हुए कानूनों का पूरा समर्थन किया, 51 लाख किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले चार किसान संगठनों ने अधिनियम का समर्थन नहीं किया और 3.6 लाख किसानों (1%) का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य सात किसान संगठनों ने संशोधनों के लिए कुछ सुझावों के साथ कानूनों का समर्थन किया।

अब इसे आप साइलेंट बहुमत मान रहें है, परन्तु यह नहीं बता रहे कि सम्पर्क किये गए 201 संगठनों ने समर्थन नहीं किया है। उनमें से ज्यादातर तो आपसे बात करने ही नहीं आए, समर्थन की तो बात ही क्या। आंदोलन में शामिल पांच सौ से ज्यादा संगठनों ने तो कमेटी को ही ख़ारिज कर दिया था।

यहां तक कि कमिटी के एक सदस्य व भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान ने तो कमिटी से अपना नाम ही वापिस ले लिया था। हालत तो यह थी कि रिपोर्ट को सार्वजानिक करने वाली प्रेस कांफ्रेंस में ही जब पत्रकारों ने कानूनों के समर्थन करने वाले संगठनों का नाम पूछा, तो वह एक भी संगठन का नाम भी मौके पर नहीं बता पाए।

कमेटी ने बड़ी ही मेहनत से कृषि कानूनों के समर्थन में 3.3 करोड़ किसानो की संख्या दिखा दी, परन्तु आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा के घटक संगठनों से जुड़े कई करोड़ किसानो का जिक्र तक नहीं किया।

हरियाणा में FCI के निर्देश और इतनी तत्परता से उच्चतम न्यायालय की कमेटी के सदस्य द्वारा रिपोर्ट को प्रेस के सामने सार्वजानिक करने की घटनाओं से किसानों को सचेत हो जाना चाहिए। किसान बड़ी जंग जीते हैं, परन्तु बड़ी ही मुस्तैदी के साथ उनकी अपनी जीत की हिफाजत ही नहीं करनी है, बल्कि भविष्य के हमलो के लिए भी तैयार होना है। इस व्यवस्था में अगर हम यह मान ले कि इन नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ हमें जीत मिलने के बाद लड़ाई ख़तम हो गई है, तो यह हमारी गलतफहमी होगी।

किसान आंदोलन ने बड़ी मज़बूती से लड़ते हुए नवउदारवादी नीतियों के जनता पर एक बड़े हमले को हराकर इन नीतियों पर रोक लगाई है, परन्तु यह रोक स्थाई नहीं है। जब तक इन नीतियों के पैरोकार शासक वर्ग के हाथ में सत्ता है, तब तक किसानों और जनता को लगातार लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

हाँ, हर जीत के बाद जनता के आंदोलन के लिए एक अनुकूल वातावरण आएगा, जिसका उपयोग जनता को अपने संगठनों को मज़बूत कर अगली लड़ाई की तैयारी के करना चाहिए, क्योंकि शासक फिर हमला करता है। भाजपा सरकार भी हमले के लिए उपयुक्त मौके की ताक में रहेगी।

यही खासियत है इस व्यवस्था में लड़ाई की, जो आज़ादी की लड़ाई से अलग है। आज़ादी की लड़ाई में तो अंग्रेजो को भगाया और लोकतंत्र के जरिये सत्ता देश की जनता के हाथ में दी। हालाँकि हमें भगत सिंह उस समय भी चेताते हैं कि केवल अंग्रेजो को भगाने से कुछ नहीं होगा।

अगर सत्ता अंग्रेजों के हाथ से निकलकर कुछ देशी शासकों के हाथ में आ जाती है, तो जनता की हालत में ज्यादा बदलाव नहीं आएगा। इसलिए जब तक शासक वर्ग की निश्चित हार नहीं होती और सत्ता मज़दूरों-किसानो के हाथ में नहीं आती, तब तक इस व्यवस्था में मेहनतकश को अपनी हर जीत की पहरेदारी निरंतर और बड़ी मज़बूती से करनी होगी। देश का किसान इस बात को समझ गया है, इसलिए उसने जीत के बाद आराम नहीं किया है, बल्कि उसने अगली लड़ाई का एलान कर दिया है।

विक्रम सिंह एसएफआई के पूर्व महासचिव तथा खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय नेता हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं।

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