BY- BIPUL KUMAR
झारखंड में अलग अलग राज्य का आंदोलन 1785 से चल रहा था, उसमें आदिवासी, मूल वासी का अहम योगदान रहा है। जो भी आज तक शहीद हुए हैं, उन्हीं लोगों के ही शहीद हुए हैं, जो व्यक्ति खतियान धारी नहीं है और अस्सी नब्बे वर्ष से झारखंड में रहने का हवाला देते हैं उनके पूर्वज नौकरी या व्यवसाय करने आये थे।
वही लोग जब अलग राज्य का आंदोलन चल रहा था, ताना मारते और कि छोटा नागपुर टीनेन्सी एक्ट (सीएनटी) और संथाल परगना टीनेन्सी एक्ट (एसपीटी एक्ट) के रहते झारखंड में घुस गए हैं। जब झारखंड में आदिवासी मूलवासी के ज़मीन पर स्थायी रूप से नहीं रह सकता तो कैसे रह गए?
क्या है सीएनटी और एसपीटी एक्ट
सीएनटी एक्ट का मकसद है कि आदिवासियों की जमीनें संरक्षित और सुरक्षित होंगी। अपने हित के लिए किसी आदिवासी की जमीन को कोई व्यवसायी खरीद नहीं सकता है। केवल वह किसान जो उनीं के समुदाय या जाति से आता है वही उस जमीन को खरीद सकता है। उसने ऐसा पहले कभी न किया हो। समान जाति के किसान जमीन को आपस में खरीद और बेच सकते हैं लेकिन उन्हें जिला अधिकारी से अनुमति लेनी होगी। इस अनुमति का प्रावधान एक्ट में है।
छोटा नागपुर किरायेदारी अधिनियम (सीएनटी) और संथाल परगना किरायेदारी अधिनियम (एसपीटी अधिनियम) झारखंड के दो अधिनियम हैं। CNT 1908 में अधिनियमित किया गया था, जबकि SPT अधिनियम 1950 में अधिनियमित किया गया था।
एसपीटी अधिनियम संथाल परगना क्षेत्र से संबंधित है, जिसमें संथाल जनजाति शामिल है। यह भूमि अधिकारों की सुरक्षा, भूमि लेनदेन के नियमन और किराया वसूली जैसे मुद्दों से संबंधित है। सीएनटी छोटा नागपुर क्षेत्र से संबंधित है और भूमिहीन लोगों को भूमि अधिग्रहण से रोकने, किरायेदारी अधिकारों के विनियमन और किराया संग्रह जैसे मुद्दों से संबंधित है।
समाज और अर्थव्यवस्था में बदलाव से उत्पन्न होने वाले मुद्दों के समाधान के लिए दोनों अधिनियमों में वर्षों में कई बार संशोधन किया गया है।
हेमंत सोरेन ने घोषणा पत्र में किये सर्वाधिक महत्वपूर्ण वादे को पूरा करते हुए स्थानीयता की परिभाषा के लिए 1932 में अंग्रेजों द्वारा किये गये भूमि सर्वे के आधार पर बने खतिहान को आधार वर्ष कर दिया। पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास ने 1985 को आधार वर्ष बनाया था। यानि 1985 तक जो भी झारखंड में बस चुके थे वे स्थानीय माने जायेंगे और तीसरी, चतुर्थ श्रेणी की नौकरी प्राप्त करने के अधिकारी होंगे।
1932 को आधार वर्ष बनाने का अर्थ यह हुआ कि 1932 के जो खतिहानी हैं, वे ही स्थानीय माने जायेंगे और तीसरे व चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में बहाली के अधिकारी होंगे। डोमिसाइल या स्थानीय नीति हर राज्य की होती है। इसे लेकर कोई विवाद भी सामान्यतः नहीं होता कि स्थानीय लोगों को तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियां मिले, लेकिन झारखंड की विशेष परिस्थितियां हैं।
झारखंड सदियों से औपनिवेशिक शोषण का शिकार रहा और बहिरागत इस क्षेत्र में आकर बसते रहे। आजादी के पहले और बाद भी हालत यह हो गयी कि आदिवासी जहां शत प्रतिशत थे और अंग्रेजों के जमाने भी 60 फीसदी से अधिक थे, वे आज महज 26 फीसदी रह गये हैं। मतलब वे अपने ही घर में अल्पसंख्यक बन गये हैं।
अब देखना दिलचस्प होगा कि अब बाबूलाल और सुदेश महतो जैसे नेता इस निर्णायक मोड पर किधर रहते हैं। हेमंत सोरेन ने अपनी सरकार को दांव पर रख कर यह साहसिक फैसला लिया है जो पूरी तरह न्याय संगत है और इसके लिए उनकी सरकार चली भी जाये तो गम नहीं।
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