खेल पत्रकारिता के सौ वर्ष तो हो गए, सुनहरा दौर कब आएगा?

BY- Dr. MANISH JAISAL

दुनियाँ भर में खेलों को लेकर जिस तरह का उत्साह दिखता है उससे भारत में प्रचिलित ‘खेलोगे कूदोगे तो बनोगे ख़राब, पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब’ पंक्ति एक बार हमें सोचने पर मजबूर करती है।

आगामी 29 अगस्त भारत में खेल दिवस के रूप में मनायी जाएगी। स्कूल से लेकर उच्च संस्थानों में भिन्न आयोजन भी ज़ोर शोर से देखने को मिलेंगे । और उन्हीं कार्यक्रमों की छोटी मोटी रिपोर्ट अगले दिन हमें अख़बारों और पत्रिकाओं और टीवी चैनल में देखने सुनने और पढ़ने को मिलेंगी।

मेरा सवाल यहीं से शुरू होता है। देश में खेल और खेलो की रिपोर्टिंग को सौ से अधिक वर्षों का समय हो चुका है इसके बावजूद हाल बेहाल क्यों है? खेल पत्रकारिता पत्रकारिता की नई विधा नही है । सौ से अधिक वर्षों की इसकी यात्रा में उतार चढ़ाव के कई पड़ाव भी आए हैं।

क़दमों से नापने पर जिस बाइस गज़ के क्रिकेट के मैदान को खेल पत्रकारिता का पर्याय मान लिया गया है उस पर सौ वर्षों के इस सफ़र के बाद सोचने को मजबूर करता है । जितना दाँव पेंच उतार- चढ़ाव भरा क्रिकेट का खेल है, उससे कमतर किसी अन्य खेल के पैंतरे नही हो सकते।

सिनेमाई परदे पर देख रहे मुक्केबाज़ी, गोल्फ़, कबड्डी, हॉकी, रग्बी, वेट लिफ़्टिंग, दौड़ प्रतिस्पर्धा, भाला फेंक, टेनिस और बैडमिंटन, फ़ुटबोल, वॉलीबॉल में जितना ख़ुद को डूबा हुआ दर्शक महसूस करते हैं उन खेलो की टीवी और अखबारी रिपोर्टिंग में वैसी बात कम नज़र आती है। खेलो की ख़बरों के नाम कौन जीता कौन हारा के अलावा बहुत कम ही फ़ीचर जैसे लेख पढ़ने को मिलते हैं।

क्रिकेट का मक्का अगर लॉर्ड्ज़ है तो अन्य खेलो के मक्का मदीना कहाँ हैं कम से कम देश में सभी पत्रकारिता के छात्रों को इसकी जानकारी होनी चाहिए।

आज की पीढ़ी को जानकार आश्चर्य होगा कि खेल पत्रकारिता का बीज यूनान यानी आज के ग्रीस में रोपा गया था। 850 ईसा पूर्व यूनान के प्राचीनतम कवि होमर ने कुश्ती के ज्ञात मुक़ाबले के बारे में लिखा। फिर मुक्केबाज़ी, और दौड़ के मुक़ाबलों पर भी ग्रीस ने अन्य लोगों ने लिखना आरम्भ किया। 1750 से 1800 के दौर में अमेरिकी लेखकों ने भी खेल की तरफ़ लिखना शुरू किया। 1790 में बेंजामिन के पास के समाचारों के कुछ संदर्भ मिलते हैं।

1850 के बाद पाठकों की खेल समाचारों के प्रति रुचि बढ़ने से इस क्षेत्र में विकास का क्रम दिखाई देता है। न्यूयार्क हेराल्ड, द टाइम्स जैसे समाचार पत्रों इस इर ओर ख़ास ध्यान दिया। 1877 में प्रकाशित मासिक पत्रिका हिंदी प्रदीप ने खेल पत्रकारिता को स्थान देना शुरू किया वहीं 1883 में खेल सम्पादक नियुक्त करने वाला न्यूयार्क वर्ल्ड पहला समाचार पत्र माना जाता है। जोफ़ेस पुलिट्जर इसके लिए बधाई के पात्र माने जाते हैं।

1930 आते आते समाचार पात्रों ने कार्यकारी खेल संपादक नियुक्त किए गए और 16 अप्रैल को एसोसिएटेड प्रेस स्पोर्ट्स वायर के निर्माण के बाद खेलों का राष्ट्रीय दायरे में आना इस संदर्भ में महत्वपूर्ण घटना रही।

टीवी के आ जाने से खेल पत्रकारिता में एक नया क़दम आया। बेसबॉल और फुटबॉल की रिपोर्टिंग होने लगी। भारत के संदर्भ में खेल पत्रकारिता के पहले पत्रकार आज वाराणसी में कार्यरत विद्याभास्कर जी को भुलाया नही जा सकता। खेल पत्रकार नियुक्त करने वाली अमृत बाज़ार पत्रिका, पहली खेल पत्रिका स्पोर्ट्स वीक, पहला खेल चैनल ईएसपीएन, को याद करना इस दौर में ज़रूरी हो जाता है।

प्रिंट के साथ साथ इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी खेल के क्षेत्र में उत्प्रेरक कार्य करते हुए दिखाई दिया है। प्रसार भारती से लेकर डीडी स्पोर्ट्स, टेन स्पोर्ट्स, जी स्पोर्ट्स, नियो स्पोर्ट्स, स्टार स्पोर्ट्स, स्टार क्रिकेट, आदि टीवी चैनल इस दिशा में सार्थक प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं।

खेल और खेल पत्रकारिता के आपसी सम्बंध बहुत पुराने होते हुए भी एक खाई हमेशा खिंची हुई हमें दिखाई देती है। क्रिकेट के मैच और कबड्डी के मैच के बीच का अंतर पत्रकारिता एक पाठक के समक्ष एक पत्रकार ही रखता है। उसकी लेखनी की ताक़त से वह कबड्डी और क्रिकेट के मैच के अंतर के बजाय दोनों टीमों के बीच के प्रतिद्वंद और अपनी रचनात्मकता के ज़रिए ज़्यादा बेहतर तरीक़े से पेश कर सकता है। टीवी की खेल पत्रकारिता के ये खाई कम करने की बेहतर कोशिश की है। इधर के वर्षों में प्रो कबड्डी, बैडमिंटन जैसे खेलों का प्रसारण बड़े स्तर पर किया गया है। लेकिन क्रिकेट चूँकि देश में 12 महीनों खेल जाने वाला खेल का पर्याय बन चुका है ऐसे में दर्शकों के बीच अन्य खेल मन मस्तिष्क में अपनी पैठ नही बना पा रहे।

देश में खेल के प्रति दीवानगी भरने और क्रिकेट को मन मस्तिष्क में भरने के लिए रेडियो ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। एशेज़, फ़ाईन लेग, शॉर्ट लेग, चायना मैन, हेल्मेट, एलबीडबल्यू, क्लीन बोल्ड, वाइड बॉल, जैसे शब्दों को हम रेडियो के ज़रिए ख़ूब सुनते रहे फिर इन्हें टीवी के ज़रिए समझने का प्रयास भी किया हैं। लेकिन दूसरे खेलो के कुछेक शब्दों के अलावा अधिकतर हमारी समझ से बाहर रहते हैं।

इनडायरेक्ट किक, स्वीपर, टाई ब्रेक, सेंड ऑफ़, लॉब, थ्रो इन, पेनाल्टी किक, जैसे फ़ुटबॉल से जुड़े शब्द के अलावा एडवांटेज क्रास कोर्ट, लाइंस मैन, सीड, लॉन, चेज़ ऑफ़ एंड्ज़, ओवर हेड, स्मैश जैसे टेनिस से जुड़े शब्दों को आम पाठक दर्शक आज भी समझने में ख़ुद को असमर्थ महसूस करता है। ऐसे ही मुक्केबाज़ी, टेबल टेनिस, बिलियर्ड्स, हॉकी, तैराकी, बास्केटबॉल, गोल्ड, शतरंज पोलो, कुश्ती, तीरंदाज़ी, खोखो कबड्डी, जूडो कराटे ट्रैक एंड फ़ील्ड, मलखम जैसे सैकड़ों अन्य खेलों से जुड़े सैकड़ों शब्द आम जन मानस से परे हैं। लेकिन ये सभी खेल किसी ना किसी रूप में देश के किसी ना किसी कोने में प्रतिस्पर्धा के रूप में ज़रूर खेले जा रहे हैं। लेकिन पत्रकारिता में उनकी रिपोर्ट्स ना के बराबर दिखती हैं। ऐसे में राष्ट्रीय खेल दिवस पर यह सवाल और प्रासंगिक हो जाता है।

किसी भी सूचना को जन सामान्य तक सम्प्रेषित करने के लिए जिन जनमाध्यमों की भूमिका होती है ऊवो खेल के संदर्भ में उतने प्रभावी नही दिखाई देते। क्रिकेट इसमें अपवाद है। हाल फ़िलहाल में फ़ुटबाल को केंद्र में रखकर जादूगर फ़िल्म OTT प्लेटफ़ॉर्म नेटफ़्लिक्स पर देखते हुए मध्य प्रदेश के नीमच शहर के खेल के प्रति अति उत्साह को समझना एक दर्शक के तौर पर आपको अलग अनुभव से रूबरू कराएगा।

फ़िल्म माध्यम किसी भी विषय को अपनी रचनात्मकता से दर्शकों के बीच पहचान बना लेती है यही कारण है दंगल, मैरी कॉम, शाबाश मिथु, जर्सी, छलाँग, झुंड, चक दे इंडिया, भाग मिल्खा भाग, 1983 जैसी कई फ़िल्मों ने खेल पत्रकारिता के उस रिक्तता को भरने का प्रयास किया है जिसे पत्रकारिता चाह कर भी नही भर पा रही। 100 से अधिक वर्षों की खेल पत्रकारिता ने आम जन मानस में अन्य जन संचार माध्यमों से तैयार किए गए खेलों के प्रति चाह रखने वाले दर्शकों, स्रोताओं को अपनी ओर खींचने में अफ़सल सी साबित हुई है। लेकिन हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी खेलों के राष्ट्रीय आयोजन में खेलों के ख़ूब आयोजन होंगें, प्रतिस्पर्धा होंगी लेकिन देश की आज़ादी के अमृत महोत्सव वाले इस वर्ष में कुछ सम्भावनाएँ अगर इस ओर भी देखी जाए तो यह खेल पत्रकारिता के सुनहरे दौर की ओर अग्रसर होने के प्रति एक अच्छा क़दम होगा।

अखबारी खेल पत्रकारिता के इतिहास में 1984 में प्रभाष जोशी द्वारा जनसत्ता में शुरू की गयी खेल पत्रकारिता अपने पाठकों को सदियों तक नही भूलेगी। कुछेक जुनूनी खेल पत्रकारों ने खेल पत्रकारिता को सौ वर्षों तक ज़िंदा रखा यही अपने आप में सकारात्मक संदेश है। उम्मीद है नए दौर में खेल पत्रकारों की सूची खड़ी करने में मीडिया के शिक्षण संस्थान भी अपनी भूमिका से पीछे नही हटेंगे।

(डॉ. मनीष जैसल, सहायक प्रोफेसर एवम विभाग प्रमुख, आईटीएम विश्वविद्यालय ग्वालियर)

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