BY- पुनीत सम्यक
वॉट्सएप विष-विद्यालय वाला छात्र तब पूछ रहा था कि सिर्फ तमिलनाडु के किसान क्यों आए? आज पूछ रहा है सिर्फ पंजाब के किसान क्यों आए हैं?
विष-विद्यालय का विषैला विद्यार्थी ऐसे ही विषाक्त तर्कों से लैस किया गया है। उसे इतना निष्ठुर बनाया गया है कि किसी दिन अपने मरते हुए बूढ़े बाप से पूछ देगा कि तुम कराहते क्यों हो? क्या मोदी जी से पहले बूढ़े नहीं होते थे?
हैरानी इस बात की है कि 80 प्रतिशत पत्रकार दो रुपये प्रति ट्वीट वाले ट्रोल की तरह सोचने लगे हैं। वे ट्विटर से घटिया पोस्ट उठाकर उसी पर बहस करा लेते हैं।
ये कौन पूछेगा कि तीन-चार सालों से पूरे देश में आंदोलन कर रहे किसानों की मात्र चार-पांच मांगें क्यों नहीं पूरी हो सकीं?
चार साल पहले वे अपने मरे हुए साथी किसानों की हड्डियां और कंकाल लाए थे। उन्होंने सोचा था कि नरकंकाल देखकर आप उनके बारे में सोचेंगे, वे दिखाना चाहते थे कि कैसे हम किसान इतने मजबूर कर दिए गए हैं कि हमें खुदकुशी करनी पड़ती है। वे तमिलनाडु के किसान थे।
क्या वे आपको याद हैं? वे सरकार और देश का ध्यान खींचने के लिए तरह तरह के उपक्रम करते रहे। महीनों तक जंतर-मंतर पर रहे। कभी चूहा खाया, कभी जमीन पर रखकर खाना खाया, कभी मल-मूत्र पिया। कभी जान देने की कोशिशें कीं और थक-हारकर चले गए।
ये साल 2017 था, इसी साल नवंबर में एक बड़ा किसान आंदोलन हुआ। एक किसान संघर्ष समन्वय समिति बनी जिसमें देश भर में 400 से ज्यादा संगठन शामिल हो गए। जंतर मंतर पर किसान संसद लगाई गई।
2018 में फिर किसानों ने दिल्ली कूच किया. 2019 में भी पूरे साल किसान आंदोलन चलता रहा। अब 2020 में फिर से किसान दिल्ली पहुंचे हैं।
सभी आंदोलनों में वही दो चार मांगें रखी गई हैं कि फसलों का उचित मूल्य सुनिश्चित हो, एमएसपी पर खरीद हो, सिंचाई की व्यवस्था दी जाए, मंडियों की सुविधा मजबूत की जाए, किसानों का कर्ज माफ किया जाए और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू हों।
सरकार किसानों की चिंता में इतनी दुबली हुई जा रही है कि कृषि को कॉरपोरेट को सौंपने का बिल तो पास कर दिया, लेकिन उनकी बरसों पुरानी मांगों में से एक भी नहीं मानी।
आप महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश को देखिए तो पिछले सालों में वहां भी लगातार किसान आंदोलन होते रहे हैं। लेकिन विष-विद्यालय इसी सोच में मरा जा रहा है कि सिर्फ पंजाब क्यों? कल पूछेगा कि सिर्फ किसान क्यों?
इस देश को क्रूरता और तानाशाही के पक्ष में तर्क गढ़ने की आदत हो चली है।

(विचार लेखक के निजी हैं)
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