आशा सिंह हार गयी मगर क्या सिर्फ वही हारी है?

 BY- संध्या शैली

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव नतीजों में से एक था उन्नाव का नतीजा, जहां से आशा सिंह ठाकुर चुनाव लड़ रही थीं। आशा सिंह किसी कांग्रेस नेता के परिवार से नहीं आती है, न ही वह राजनैतिक कार्यकर्ता हैं। कांग्रेस ने उन्हे उम्मीदवार बनाया था। क्या खास था आशा में कि उन्हे विधानसभा में पहुंचना चाहिये था?

2017 में उन्हीं की बेटी के साथ तब के भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सैंगर ने जघन्य बलात्कार किया था और बाद में थाने में ही आशा के पति की पुलिस और सैंगर के लोगों ने हत्या भी कर दी थी। लेकिन आशा ने अपनी लड़ाई जारी रखी।

2017 के हौलनाक और जघन्य हादसे को झेलते हुये आशा ने पिछला समय न्याय के लिये लड़ते हुये गुजारा। आज कुलदीप सेंगर जेल की सलाखों के पीछे है और उस पर लगे आरोप सिद्ध हो चुके हैं।

‘‘मैं लड़की हूं, लड़ सकती हूं’’ के आत्मविश्वास और झंकार पैदा करने वाले माहौल में वे चुनाव मैदान में उतरीं। इस विधान सभा चुनाव में आशा ने पीडित महिलाओं की आवाज को विधान सभा के जरिये उठाने के लिये चुनाव लड़ने का निर्णय किया।

एक राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर वे खड़ी हुयीं। लेकिन जवाब में जनता ने उन्हे वोट कितने दिये? केवल 478 !! ये वोट नोटा को मिले वोटों से भी कम थे।

आशा को मिले इतने कम वोटों ने इस देश में जनता के मन में मरती जाती मानवीय संवेदनाओं का सबूत एक बार फिर से सामने ला दिया है। एक हौलनाक हादसे को झेलकर हिम्मत के साथ संघर्ष करने वाली महिला के मुकाबले किसी बाहुबली को अपना जनप्रतिनिधि बनाने वाली जनता को अब पूरी तरह से तैयार कर दिया गया है।

हुक्मरानों को ऐसी ही जनता चाहिये। इसलिये मानवीय संवेदनाओं से रहित ऐसा समाज सायास बनाया जा रहा है और यह कोशिश पिछले कई सालों से की जा रही है।

इसका एक उदाहरण 2017 में मणिपुर के विधानसभा चुनावों में इरोम शर्मिला का भी है। इन चुनावों में आयरन लेडी कहलाने वाली और प्रदेश से अफ्स्पा जैसे खतरनाक और नागरिक अधिकारों पर हमला करने वाले कानून को हटाने के लिये लगातार 17 सालों तक भूख हड़ताल करने वाली इरोम शर्मिला ने चुनाव लड़ने और जनविरोधी कानून हटाने के लिये लोकतांत्रिक तरीके से अपनी लड़ाई जारी रखने का फैसला किया।

दुनियां भर के साथ-साथ मणिपुर में भी लोकप्रिय इरोम शर्मिला को कितने वोट मिले? केवल 90 !! जिस कानून को हटाने के लिये पूरे मणिपुर की जनता संघर्ष कर रही थी, उसी संघर्ष को आगे ले जाने वाली इरोम को वही जनता विधानसभा में पहुंचाने के लिये तैयार नहीं हुयी।

मीडिया ने इसके लिये खबर बनायी कि इरोम ने आप पार्टी से पैसे लिये थे, इसलिये जनता ने उन्हे हराया। तो वही जनता शराब बांटने वाले, वोटरों को खरीदने वाले गुंडों, मवालियों और बलात्कारियों तक को क्यों वोट दे देती है ?

यानि आशा सिंह हो या इरोम शर्मिला, जनता के लिए संघर्ष करने वाली कोई भी व्यक्ति आज वोट देने वाले नागरिकों के दिलों में नहीं उतर पाती। सहानुभूति, प्यार और मानवीय संवेदनायें धीरे-धीरे खत्म की जा रही हैं।

और यह हुक्मरानों के द्वारा अपनाई जा रही एक खास तरीके की मोडस ऑपरेंडी है कि जनता को उनके जीवन से जुड़े मुद्दों पर वोट देने के लिये तैयार होने ही मत होने दो।

उत्तर प्रदेश में हुए चुनावों के दौरान हुयी आम सभायें, भाजपा के नेताओं को जनता के द्वारा भगाया जाना, ये घटनाएं इस तरह के परिणामों की ओर संकेत नहीं करते थे। लेकिन वोट देने के लिये खड़े हुये व्यक्ति के दिल दिमागों में हिंदू-मुसलमान के आभासीय मुद्दे इस कदर भर दिये गये थे कि वे अपनी बदहाली भूल कर भाजपा को वोट दे बैठे।

यह काम किसी व्यापारी के द्वारा अपना माल बेचने के लिये दिखाये जा रहे विज्ञापन की तरह किया जा रहा है जिसमें खरीददार अपने घर के लिये जरूरी नमक के बजाये विज्ञापन में दिखायी जा रही क्रीम खरीद कर घर आ जाता है।

जिस तरह से पूंजीवादी अपना मुनाफा बढाने के लिये माल ही नहीं, उस माल को खरीदने वाली जनता भी तैयार करते हैं, उसी प्रकार अब चुनावों में भाजपा उसे ही जीत दिलाये ऐसी अंधभक्त, लाचार और धर्म के नशे में चूर जनता को तैयार कर रही है।

दुख की बात यह है कि ये नतीजे उस उत्तर प्रदेश में आये हैं, जहां पर अभी भी पिछले साल गंगा में बहती लाशें लोगों केे दिलों दिमाग में छाई हुयी हैं, बिना सोचे-समझे लगे लाॅक डाउन के कारण लाखों की संख्या में उत्तर प्रदेश का मजदूर पूरे देश से पैदल लौटा हुआ आज भी याद है।

आगरा में पैसा न मिलने के कारण आॅक्सीजन बंद करके लोगों को मार डालने की घटनाओं के ज़ख्म जहां पर आज भी हरे हैं, जहां पर इलाहाबाद में ठीक चुनावों के पहले हजारों नौजवान नौकरी की मांग करते हुये सड़कों पर निकले और उन पर हुये बर्बर लाठी चार्ज के घाव आज भी ताजा है। उस प्रदेश में ऐसे नतीजे आयेंगे, ऐसी कल्पना किसी ने नहीं की थी।

लोकतंत्र में अपने वोट से किसी को सत्ताधारी बनाने वाली इस जनता को इतना लाचार और बेचारा बना दिया गया है कि 5 किलो अनाज का लालच देकर भाजपा के नेता यह कहते हैं कि हमारा नमक खाया है, उसे भूलना मत।

यह बात सही है कि हमारे मध्यम वर्गीय को भाजपा नेताओं के ये भाषण हास्यास्पद और अपमानास्पद लगेंगे, लेकिन हिदू-मुसलमान के आभासीय भेदभाव में फंसी गरीब और लाचार जनता को यह लगता है कि उसे सरकार के नमक का फर्ज निभाना है।

इस स्थिति से यदि निपटना है, तो आंदोलनों में भागीदारी भर से जनता जागरूक नहीं बन सकती वरना जिस मुजफफरनगर में किसान आंदोलन के दौरान सबसे बड़ी महापंचायत हुयी और लाखों की संख्या में जनता जुटी, वहां पर दोबारा भाजपा के उम्मीदवार नहीं जीतते।

मनुष्य को वहशी, संवेदनहीन और वंचित को याचक बना देने के ये प्रयास एक खास मुहिम के तहत जारी हैं – उसे समझना होगा। सरकार का नमक खाने के उलटे सोच को नियति मान बैठी जनता की समझ को पलटने के प्रयास भी आंदोलनों के साथ-साथ गंभीरता से करने होंगे, वरना इसी तरह के शर्मसार करने वाले फैसले आते रहेंगे।

संध्या शैली अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति – AIDWA की केंद्रीय कार्यकारिणी सदस्य हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं।

About Admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *